युद्ध मे बीजड़ और लिम्बा मेघवाल बहादुरी से लड़े।
तेरहवीं शताब्दी में दिल्ली में अलाउद्दीन खिलजी का राज्य था और जालोर कान्हड़दे के अधीन थी। अलाउद्दीन खिलजी की सेना और कान्हड़दे की सेना के बीच भयंकर युद्द हुआ।
जालोर के कान्हड़दे के साथ हुए युद्ध के बारे में खुसरो और फरिश्ता लिखते है: एक बार जालोर का शासक कान्हड़दे दिल्ली के सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी को धोक देने दिल्ली गया। वहां उसने आपसी बातचीत में कहा कि हिंदुस्तान की धरती पर आज के दिन कोई भी ऐसा बलशाली भूपति नहीं है, जो उसकी सेना से मुकाबला कर सके। एक दिन अलाउद्दीन की मजलिस जुड़ी हुई थी, उस में कान्हड़दे भी था। अलाउद्दीन ने कहा कि अगर मैं चुनौती दूं तो तुम मैदान में टिक नही सकोगे! कान्हड़दे बोला कि कैसे मरना है, मैं वह जानता हूं! सुल्तान को गुस्सा तो बहुत आया परंतु उस समय उसने कुछ नहीं कहा। उसको जाने दिया। कान्हड़दे कुछ समय दिल्ली में रहा और फिर वापस जालोर चला आया।
दो-तीन महीने बाद सुल्तान ने अपनी सेना को तैयार कर जालोर कूच करने का हुक्म दिया। उसकी एक सेना मलिक नायब के नेतृत्व में दक्षिण गयी हुई थी और एक सिवाना। सुल्तान ने अपनी दासी गुल ई बिहिश्त के नेतृत्व में जालोर के लिए सेना भेज दी। गुले बिहिश्त ने जालोर आकर अचानक किले पर आक्रमण कर दिया। कान्हड़दे को कुछ समझ में नहीं आया, किले के दरवाजे बन्द कर दिए। गुले बिहिश्त ने बहुत रक्तपात किया। बहुत से वीर मारे गए, परन्तु कान्हड़दे किले से बाहर भी नहीं निकला। वह इस तरह से घिर गया कि अब किले से बाहर निकलकर लड़ने के अलावा कोई दूसरा विकल्प उसके पास बचा नहीं था।
इतने में गुल ई बिहिश्त अचानक बीमार पड़ गयी और उसकी वहीं मृत्यु हो गयी। इस पर गुले बिहिश्त के पुत्र ने सेना की कमान अपने हाथ में ले ली और युद्ध को जारी रखा। उधर सिवाना के किले को अलाउद्दीन की सेना ने अपने कब्जे में ले लिया था और सिवाना के राजा सातलदे ने अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार कर ली थी। ये दोनों घटनाएं एक ही समय की है।
उधर कान्हड़दे ने देखा कि सुल्तान की सेना डटी हुई है और अब लड़ाई के अलावा कोई चारा नहीं है तो उसने अपने सैनिकों को इकट्ठा किया और दुश्मन की सेना को ललकारते हुए किले से बाहर निकला। शाहीन और कान्हड़दे आमने सामने हुए, जिस में शाहीन मारा गया। यह समाचार प्राप्त होते ही कमालुद्दीन के नेतृत्व में सुल्तान की सेना जालोर आ पहुंची। उसने चारों ओर से किले को घेर लिया। दोनों तरफ से बहुत से सैनिक मारे गए। कान्हड़दे और उसके बहुत से संबंधी वीरगति को प्राप्त हुए। कमालुद्दीन ने किले को अपने कब्जे में ले लिया और सुल्तान को खबर की। सुल्तान ने दिल्ली में नगाड़े बजवाये और खुशियां मनाई।
इस युद्ध में जान माल की बहुत हानि हुई। सुल्तान की सेना सब धन-दौलत लूट कर दिल्ली ले गयी। यह कहा जाता है कि उसने किले में सुई तक नहीं छोड़ी। इसी युद्ध में जालोर के सभी लोगों ने सुल्तान की सेना की निर्दयता का सामना किया। कान्हड़दे की सेना के बड़े बड़े महारथी वीरगति को प्राप्त हुए तो उनकी औरतों ने जौहर किया।
कान्हड़दे प्रबंध एक काव्य-रचना है, जिस में इस युद्ध का जीवंत वर्णन किया गया है। जिस में कई बहादुरों के नाम बड़ी श्रद्धा से लिए गए है और उनकी वीरता की प्रशंसा की गई है। बहुत से बहादुर वीरभूमि को प्राप्त हुए। उसी पुस्तक के चौथे सर्ग के 278 वें पाहुड में बीजड़ और लिम्बा मेघवाल को जिक्र है।
उस युद्ध मे बीजड़ और लिम्बा मेघवाल बहादुरी से लड़े। कान्हड़दे प्रबंध में इनकी प्रशंसा की गई है, जिसका जिक्र करते हुए सन 2006 में राष्ट्रदूत में इस बाबत लेख छपा था, परन्तु उस में संदर्भ नहीं था।
अब इसको पुनः संदर्भ के साथ वापस पोस्ट कर रहे है। @संदर्भ देख कर सेव करले।
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