राजा का वरण : मेघ और गड़रिये, गाड़ी' लोगो की दुश्मनी का अंत-
राजा का वरण : मेघ और गडरिये ‘गाड़ी’ लोगों की दुश्मनी का अंत-
जम्मू प्रदेश में, जहाँ वर्तमान में भो (bhow) का किला अवस्थित है, यहाँ किसी ज़माने में घना निर्जन जंगल हुआ करता था। पुराने समय में गिनती के कुछ मेघ और टक्कर (टका) परिवार यहाँ आ बसे थे ( ये यहाँ कब आकर रहने लगे, इसकी कोई निश्चित तिथि नहीं मिलती है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि ये ही यहाँ के प्राचीन मूल आदि-निवासी है)। उन्होंने इस प्रदेश को आबाद किया, परन्तु उनकी आबादी कोई ज्यादा नहीं थी। यहाँ का पूरा पर्वतीय इलाका बीहड़ वन-प्रदेश था। मेघों ने सबसे पहले वहां बसकर उन पर्वतीय वन-प्रदेश में उपजाऊ भूमि पर खेती-बाड़ी करना शुरू किया और अपना जीवन-यापन करने लगे। दूर-दूर तक कोई मानव-बस्ती नहीं थी। उन प्रदेशों में अपने पशुओं के चारे-पानी की खोज में अपने परिवार के साथ इधर-उधर घुमने वाले और घुमक्कड़ी -जीवन बिताने वाले गडरिये मेघों के खेतों में आ जाते थे और समय-समय पर उनका बहुत नुकसान करते थे। ये गडरिये इन मेघों की बस्ती से पूर्वी उत्तरी भागों में दूर डेरा डाल कर रहते थे, जो चंबा और किश्तवाड़ के उत्तर में पड़ता था। ये बर्बर और जालिम अवस्थापन्न पशुपालक अपनी भेड़-बकरियों और परिवारों के साथ आकर मेघों की खेती को बर्बाद कर देते थे। मेघों और गडरिया ‘गाड़ी’ लोगों के बीच खेती-बाड़ी के समय पर प्रतिवर्ष संघर्ष होता रहता था और कई बार खून-खराबा हो जाया करता था। खेती-बाड़ी के नुकसान के साथ ही ये रात को चोरी-धाडी और डाका भी डाल जाते थे। मेघ लोग उनका माकूल मुकाबला करने में असमर्थ थे। कई अवसरों पर नित-प्रति दिन उन में लडाई-झगड़ा होता रहता था। वह वन-प्रदेश उस समय किसी राजा के अधीन नहीं था, इसलिए जो बलशाली होता वो अपनी मन-मर्जी करता और गाड़ी यहाँ आकार बर्बरतापूर्वक मनमानी कर और लूट-पाट कर भाग जाते। मेघ उनका पीछा करते, उनका मुकाबला करते; परन्तु बर्बरता का कभी अंत नहीं होता।
मेघ बदला लेने के लिए उनकी औरतों और बच्चों को पंजाब में ले जाकर बेच देते। दोनों कबीलों में इसी प्रकार का लम्बा संघर्ष और दुश्मनी ठनी हुई थी। ऐसे में कहीं बसने के उद्देश्य से घूमते हुए दो परिवार वहां आये, जिन में कुल मिलाकर 20 लोग थे। मेघों ने उनको मदद की और वहां उनको बसने दिया। उन्होंने अपने को राजपूत घोषित किया और जम्मू के कटोच राज-परिवार से सम्बंधित बताया (इस क्षेत्र में किसी राजपुत के बसने का यह पहला उदहारण है)। उन दोनों भाईयों ने मेघों और गडरिया गाड़ीयों के बीच जो दुश्मनी थी, उसको मिटाने और भूल जाने का इकरार करा दिया। पहले-पहल तो गाड़ी उद्दंड ही बने रहे, परन्तु इन परिवारों का ज्यों-ज्यों प्रभाव बढ़ता गया तो वे भी उनकी सुरक्षा के इच्छुक हो गए। इस प्रकार इन बाद में आकर बसने वाले राजपूतों ने मेघों के बीच में अपनी एक पैठ और उच्चता कायम कर दी और साथ ही गाड़ी और मेघों के बीच चली आ रही दुश्मनी भी ख़त्म हो गयी।
ऐसा माना जाता है कि उन्हें वहां बसने के नौ वर्ष बाद हिजरी सन 602 (यानि कि ईसा की 12वीं शताब्दी के अंत में) में ये दोनों भाई किन्हीं कारणों से अलग अलग हो गए। बडे भाई किरपालदे ने वर्तमान भो किले के पास वही पर अपनी झौपडी बनायीं और स्थायी रूप से बस गया। छोटे भाई ने पहाड़ की दूसरी तरफ पश्चिम में नदी के ‘थोवी’ कहे जाने वाले किनारे पर वैसी ही झौपड़ी बनायीं और वहां जा बसा। धीरे-धीरे इन दोनों भाईयों के वंशज ही पहाड़ों के मालिक बन गए यानि की वहां के राजा बन गए। ऐसा माना जाता है कि हिजरी संवत 749 (विक्रमी संवत 1389) अर्थात ईसा की 14वीं शताब्दी में इसी परिवार का वंशज जयदेव पहला आदमी था, जिसने राजा की पदवी ग्रहण की। उसने अपने सभी सम्बन्धियों और वहां के सभी मेघों को थोवी पर इकठ्ठा कर यह पदवी ग्रहण करने के लिए वह एक बड़ी शिला पर बैठा और उसकी घोषणा की। उस समय उनकी कुल संख्या कोई 500 थी। वह इलाका उस समय तक अल्प जनसंख्या वाला ही था। इस घटना के बाद वहां निवासित मेघ और बाद में आने वाले दूसरे लोगों भी उसे राजा के रूप में मानने लगे।
( Reference: Smyth, G. C. – ‘A History Of Reigning Family Of Lahore’, W. Thacker & co, Calcutta, 1847, pages; 232 to 235)
A history of the reigning family of Lahore, with some account of the Jummoo rajahs, the Seik soldiers and their sirdars; with notes on Malcolm, Prinsep, Lawrence, Steinbach, McGregor, and the Calcutta Review
जम्मू प्रदेश में, जहाँ वर्तमान में भो (bhow) का किला अवस्थित है, यहाँ किसी ज़माने में घना निर्जन जंगल हुआ करता था। पुराने समय में गिनती के कुछ मेघ और टक्कर (टका) परिवार यहाँ आ बसे थे ( ये यहाँ कब आकर रहने लगे, इसकी कोई निश्चित तिथि नहीं मिलती है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि ये ही यहाँ के प्राचीन मूल आदि-निवासी है)। उन्होंने इस प्रदेश को आबाद किया, परन्तु उनकी आबादी कोई ज्यादा नहीं थी। यहाँ का पूरा पर्वतीय इलाका बीहड़ वन-प्रदेश था। मेघों ने सबसे पहले वहां बसकर उन पर्वतीय वन-प्रदेश में उपजाऊ भूमि पर खेती-बाड़ी करना शुरू किया और अपना जीवन-यापन करने लगे। दूर-दूर तक कोई मानव-बस्ती नहीं थी। उन प्रदेशों में अपने पशुओं के चारे-पानी की खोज में अपने परिवार के साथ इधर-उधर घुमने वाले और घुमक्कड़ी -जीवन बिताने वाले गडरिये मेघों के खेतों में आ जाते थे और समय-समय पर उनका बहुत नुकसान करते थे। ये गडरिये इन मेघों की बस्ती से पूर्वी उत्तरी भागों में दूर डेरा डाल कर रहते थे, जो चंबा और किश्तवाड़ के उत्तर में पड़ता था। ये बर्बर और जालिम अवस्थापन्न पशुपालक अपनी भेड़-बकरियों और परिवारों के साथ आकर मेघों की खेती को बर्बाद कर देते थे। मेघों और गडरिया ‘गाड़ी’ लोगों के बीच खेती-बाड़ी के समय पर प्रतिवर्ष संघर्ष होता रहता था और कई बार खून-खराबा हो जाया करता था। खेती-बाड़ी के नुकसान के साथ ही ये रात को चोरी-धाडी और डाका भी डाल जाते थे। मेघ लोग उनका माकूल मुकाबला करने में असमर्थ थे। कई अवसरों पर नित-प्रति दिन उन में लडाई-झगड़ा होता रहता था। वह वन-प्रदेश उस समय किसी राजा के अधीन नहीं था, इसलिए जो बलशाली होता वो अपनी मन-मर्जी करता और गाड़ी यहाँ आकार बर्बरतापूर्वक मनमानी कर और लूट-पाट कर भाग जाते। मेघ उनका पीछा करते, उनका मुकाबला करते; परन्तु बर्बरता का कभी अंत नहीं होता।
मेघ बदला लेने के लिए उनकी औरतों और बच्चों को पंजाब में ले जाकर बेच देते। दोनों कबीलों में इसी प्रकार का लम्बा संघर्ष और दुश्मनी ठनी हुई थी। ऐसे में कहीं बसने के उद्देश्य से घूमते हुए दो परिवार वहां आये, जिन में कुल मिलाकर 20 लोग थे। मेघों ने उनको मदद की और वहां उनको बसने दिया। उन्होंने अपने को राजपूत घोषित किया और जम्मू के कटोच राज-परिवार से सम्बंधित बताया (इस क्षेत्र में किसी राजपुत के बसने का यह पहला उदहारण है)। उन दोनों भाईयों ने मेघों और गडरिया गाड़ीयों के बीच जो दुश्मनी थी, उसको मिटाने और भूल जाने का इकरार करा दिया। पहले-पहल तो गाड़ी उद्दंड ही बने रहे, परन्तु इन परिवारों का ज्यों-ज्यों प्रभाव बढ़ता गया तो वे भी उनकी सुरक्षा के इच्छुक हो गए। इस प्रकार इन बाद में आकर बसने वाले राजपूतों ने मेघों के बीच में अपनी एक पैठ और उच्चता कायम कर दी और साथ ही गाड़ी और मेघों के बीच चली आ रही दुश्मनी भी ख़त्म हो गयी।
ऐसा माना जाता है कि उन्हें वहां बसने के नौ वर्ष बाद हिजरी सन 602 (यानि कि ईसा की 12वीं शताब्दी के अंत में) में ये दोनों भाई किन्हीं कारणों से अलग अलग हो गए। बडे भाई किरपालदे ने वर्तमान भो किले के पास वही पर अपनी झौपडी बनायीं और स्थायी रूप से बस गया। छोटे भाई ने पहाड़ की दूसरी तरफ पश्चिम में नदी के ‘थोवी’ कहे जाने वाले किनारे पर वैसी ही झौपड़ी बनायीं और वहां जा बसा। धीरे-धीरे इन दोनों भाईयों के वंशज ही पहाड़ों के मालिक बन गए यानि की वहां के राजा बन गए। ऐसा माना जाता है कि हिजरी संवत 749 (विक्रमी संवत 1389) अर्थात ईसा की 14वीं शताब्दी में इसी परिवार का वंशज जयदेव पहला आदमी था, जिसने राजा की पदवी ग्रहण की। उसने अपने सभी सम्बन्धियों और वहां के सभी मेघों को थोवी पर इकठ्ठा कर यह पदवी ग्रहण करने के लिए वह एक बड़ी शिला पर बैठा और उसकी घोषणा की। उस समय उनकी कुल संख्या कोई 500 थी। वह इलाका उस समय तक अल्प जनसंख्या वाला ही था। इस घटना के बाद वहां निवासित मेघ और बाद में आने वाले दूसरे लोगों भी उसे राजा के रूप में मानने लगे।
( Reference: Smyth, G. C. – ‘A History Of Reigning Family Of Lahore’, W. Thacker & co, Calcutta, 1847, pages; 232 to 235)
A history of the reigning family of Lahore, with some account of the Jummoo rajahs, the Seik soldiers and their sirdars; with notes on Malcolm, Prinsep, Lawrence, Steinbach, McGregor, and the Calcutta Review
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