मेघ चेतना में प्रकाशित आलेख: मेदे (Mede) : मद्र (Madra) : मेग/मेघ (Meg/Megh) लेखक : ताराराम जोधपुर (राजस्थान)
मेघ चेतना में प्रकाशित आलेख:
मेदे (Mede) : मद्र (Madra) : मेग/मेघ (Meg/Megh)
लेखक : ताराराम
जोधपुर (राजस्थान)
सतलुज नदी के मुहानों और उसके आसपास के इलाकों में पुराने समय से बसी हुई जाति को रामायण, महाभारत, पुराण और अन्य संस्कृत व पालि साहित्य में मद्र कहा गया है. सभी स्रोतों से यह स्पष्ट है कि प्राचीन काल में मद्र लोग शुतुद्रु नदी के किनारे भी बसे हुए थे, जिसे आजकल सतलुज नदी कहते हैं. शुतुद्रू के नाम से सतलुज नदी का वर्णन ऋग्वेद में दो बार हुआ है. (ऋग्वेद, 3.33.1 व 10.75.5) वाल्मीकि रामायण में इस नदी के लिए शतद्रु शब्द का प्रयोग हुआ है. (वाल्मीकि कृत रामायण, 2.71.2), जिसका अर्थ किया जाता है- ‘शतधा द्रवति’ अर्थात 100 धाराओं वाली नदी. यह शब्द इस नदी का विशेषण है. शुतुद्रु नदी का सम्बन्ध घनिष्ठ रूप से मेगों से रहा है. सिकंदर के आक्रमण के समय मेग (मेघ) जाति सतलुज नदी के मुहाने पर बसी हुई थी.
कर्नल अलेक्जेंडर कनिंघम महोदय (आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया रिपोर्ट्स, वॉल्यूम-2, पृष्ठ-10) ने पहली बार हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि आज की मेग (मेघ) जाति भारत की पुरानी और पहले बसी हुई जाति है और प्रमाण के साथ यह बताया कि सिकंदर के आक्रमण के समय इस जाति की बस्तियां सतलुज, रावी, चिनाब और झेलम आदि नदियों के मुहानों पर बसी हुई थीं. ग्रीक और ईरानी साहित्य के मेगार्सुस और संस्कृत के मेगद्रु व शुतुद्रु शब्दों के मूल में जाकर कनिंघम महोदय ने दावे के साथ यह प्रमाणित किया है कि सिकंदर के आक्रमण के समय मेग जाति मुख्यतः सतलुज नदी के आसपास बसी थी और वर्तमान सतलुज नदी का ही उल्लेख ‘मेगार्सुस’ नदी के नाम से हुआ है. सभी साहित्यिक और भौगोलिक सबूतों के आधार पर कर्नल एलेक्जेंडर कनिंघम ने यह स्पष्ट किया कि वर्तमान ‘सतलुज नदी’ का प्राचीन नाम मेगद्रु था, जो बाद में शुतुद्रू और शुतुद्रू से शतद्रु और शतद्रु से सतलज हो गया.
पालि और संस्कृत के ग्रंथों में हुए वर्णन के अनुसार यह साफ़ होता है कि प्राचीन काल में सतलुज नदी के आसपास मद्र जाति बसी थी, न केवल इस इलाके में बल्कि उत्तर में हिमालय के परे बहुत बड़े फैले हुए इलाके में मद्र जाति फैली हुई/बसी थी. मद्र जाति के यहाँ बसे होने के कारण ही इन प्रदेशों को मद्र-देश कहा जाता था. जिसे हम आगे भी देखेंगे. ग्रीक और पर्शियन इतिहास के जानकारों ने इस इलाके में बसी जाति को मेदे (Mede) जाति का कहा है, जो उपनिषद, महाभारत, पुराण आदि संस्कृत ग्रंथों में वर्णित ‘मद्र' जाति से साम्यता रखती है यानि मेदे ही मद्र है और मद्र ही मेघ है. इस पृष्ठभूमि के साथ, उपलब्ध ऐतिहासिक और साहित्यिक स्रोतों के आधार पर, इस छोटे-से आलेख में प्राचीन इतिहास के मेदे (Mede) और मद्र (Madra) पर विचार के साथ उनके निवास स्थानों की प्रासंगिक और उचित चर्चा और उस से प्राप्त हुई जानकारी से वर्तमान मेग (मेघ) जाति के पुराने इतिहास की जानकारी देने की एक छोटी-सी कोशिश की गई है.
वाल्मीकि रामायण में भरत जिस रास्ते से अयोध्या लौटता है, उस रास्ते में आने वाली नदियों का उल्लेख वाल्मीकि ने किया है, जिस में सतलुज का उल्लेख शतद्रु के नाम से हुआ है. (रामायण, अयोध्याकाण्ड, 71.1-9), पुराणों (भागवत पुराण- 5.18.18, विष्णु पुराण- 2.3.10) में इस नदी का उल्लेख हुआ है, यह उल्लेख कहीं कहीं पर शुतुद्रू, कहीं कहीं पर शिताद्रु, कहीं कहीं पर सिताद्रू आदि के रूप में मिलता है. (शब्दकल्पद्रुम और भारतद्विरूपकोश, मोनिएर विलियम, तथा नन्दो लाल डे; जियोग्राफिकल डिक्शनरी ऑफ़ एंशियेंट एंड मिडिवल इंडिया, तीसरा संस्करण, दिल्ली, 1971, पृष्ठ-187, ओ. पी. भारद्वाज कृत स्टडीज इन द हिस्टोरिकल जियोग्राफी ऑफ़ एंशियेंट इंडिया में उद्धृत, पृष्ठ-178) अलबरूनी ने इसे शतरुद्र कहा है, जिसे पंजाब में शतद्रु/सतलदर आदि भी बोला जाता है. स्कन्द-पुराण में इस नदी को शतरुद्रिका कहा गया है. (भारद्वाज, ओ पी : स्टडीज इन द हिस्टोरिकल जियोग्राफी ऑफ़ एंशियेंट इंडिया, संदीप प्रकाशन, दिल्ली, 1986, पृष्ठ 177-178 ). इस नदी को सारंग भी कहा गया है. (विलियम विन्सेंट, डी. डी., द वॉयेज ऑफ़ नेअर्चुस फ्रॉम इंडस टू द यूफ्रातेस, टी. कादल जुन. एंड डब्ल्यू. दविएस, लंदन, पृष्ठ-76.) स्पष्ट यह है कि इस नदी के लिए ऋग्वेद में इस्तेमाल शब्द शुतुद्रु से आज के सतलज शब्द की यात्रा कई सांस्कृतिक पड़ावों से होकर गुजरी है और ये शब्द इस नदी के मूल नाम मेगद्रु शब्द को संस्कृतनिष्ठ बनाने के फेर में साहित्य में प्रयुक्त हुए हैं. इस नदी का मूल या प्रारंभिक नाम, जैसा कि कनिंघम महोदय ने गवेषित (रिसर्च) किया, मेगद्रु रहा है (आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया रिपोर्ट्स, वॉल्यूम-2, पृष्ठ-11 से 13), डाइयोनिसस (Dionysius Periegetes) ने इस नदी (सतलुज नदी) के लिए Megarsus (Megandros) शब्द प्रयुक्त किया है, जो संस्कृत के मेगद्रु के समतुल्य है. इस नदी का उल्लेख एविएनुस (Avienus) ने Cymander, प्लिनी ने Hesidros नदी के नाम से किया है. टोलेमी ने सतलुज नदी हेतु ज़राद्रस (zaradrus/zadadrus) शब्द का प्रयोग किया है. कई अन्य ईरानी और ग्रीक इतिहासकारों ने इस से मिलते-जुलते शब्दों का प्रयोग इस नदी को संबोधित करने हेतु किया है. (आर्कियोलॉजिकल रिपोर्ट्स-1863-64, पृष्ठ-12 ). ईरान और फ़ारस में नदियों के नाम पर वहां के निवासियों का नामकरण करने की एक आम-परंपरा रही है, यथा भारत के लिए वे लोग हप्त-हिंदु शब्द प्रयुक्त करते हैं. इस प्रकार से ‘मेगद्रु नदी’ के मुहानों पर बसे हुए लोग ही आगे चलकर मेग कहलाये, जो वैदिक साहित्य में मद्र और प्राचीन ईरानी व यूनानी साहित्य-इतिहास में मेदे (Mede) या मेदेस/मेडिज़ आदि के रूप में वर्णित किये गये हैं.
मेदे (Mede)- मेदे (Mede) शब्द इतिहास में पहली बार ईसा-पूर्व 9वीं शताब्दी में असीरिया के दस्तावेजों में अमदाई (Amadai) के रूप में प्रकाश में आता है. प्राचीन काल में ‘मेदे’ प्रजाति अमर्दुस (Amardus) नदी के तट पर बसी हुई थी. वे ही बाद में मेदे/मडई (Mede/Madai) कहे जाने लगे. ईरानी परंपरानुसार Amadai शब्द में अ विलुप्त कर लिए जाने पर वे इन्हें मैदे या मदे/मेदी बोलते थे, इस प्रकार से अमर्दुस में प्रयुक्त ‘अ' विलुप्त हो कर मैदे शब्द रह गया. मेला पोम्पोनिउस (प्रथम शताब्दी ईस्वी) कैस्पियन सागर के पास अमार्दी (Amardi) राष्ट्र का जिक्र करता है. असीरिया से प्राप्त दस्तावेजों के शब्द में ‘r’ अक्षर नहीं मिलता है, वरना ये शब्द पूरी तरह मिलते हैं. हरित कृष्णा देब एक शोध-आलेख ‘मेदे और मद्र (Mede and Madra)’ में यह स्पष्ट करते हैं कि हमें असीरिया के मदई (Madai) शब्द को मर्दा {ma(r)da} के समान लेना चाहिए, जो संस्कृत के मद्र शब्द की जाँच-पड़ताल (ये शब्द एक ही है) को युक्तियुक्त बनाते हैं. (Journal and Proceedings of the Asiatic Society of Bengal, new series, Vol. 21, 1925, Pp. 205-210)
मेडिज के शुरुआती इतिहास को जानने के लिए हेरोडोटस एक प्रमुख स्रोत है. वह वर्णन करता है कि लगभग 1700 ईस्वी पूर्व मेदेस ने असीरियन प्रभुत्व के विरुद्ध विद्रोह किया था. वे अलग-अलग गांवों में बिखरे हुए बिना किसी एक केन्द्रीय सत्ता के निवास करते थे. उनके प्रत्येक गाँव में एक न्यायधीश/पञ्च होता था. हालाँकि वे देइओकेस (Deioces) के जैसी प्रतिष्ठा के नहीं थे, जिसे आसपास के गाँव वाले अपने विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थ के रूप में बुलाते थे, परन्तु उनके हर-एक ग्राम में उनका न्यायाधीश या पञ्च होता था, जो उनका मुखिया होता था. जब देइओकेस ने अपने आप को मध्यस्थता हेतु असमर्थ और परिहार्य महसूस किया तो उसने मध्यस्थता करनी छोड़ दी. ऐसी स्थिति में सब जगह अराजकता फैल गयी. इस अराजकता को समाप्त करने के लिए सभी मेडीस एक जगह एकत्रित हुए और देइओकेस को अपना राजा चुना. उसके बाद उसका पुत्र फ्रोर्तेस उनका राजा हुआ और उसने पर्शिया को जीत कर मेदी राज्य की सीमा पर्शिया तक फैलाई. उसने पड़ोस के असीरिया राज्य पर भी धावा बोला, जिसकी राजधानी उस समय निनेवेह थी, परन्तु उसे जीत नहीं मिली. फ्रोर्तेस के बाद क्याक्सारेस सिंहासन पर बैठा. उसने लीडिया पर आक्रमण किया. इन सब की और बाद के राज-काज की ऐतिहासिकता प्रमाणित है.
देइओकेस की प्रतिष्ठा या विश्वसनीयता उसकी ईमानदारी और इंसाफ़पसंदी से थी, उस समय मदे लोग भी ग्रीक लोगों की तरह छोटे-छोटे राज्यों में बँटे हुए थे और प्रत्येक राज्य का एक अधिपति होता था, जो उनका राजा होता था. प्रत्येक नगर उसके आदेशों की पालना करता था. ईमानदारी और इंसाफ़पसंदी प्रत्येक मेदी का एक विशिष्ट गुण माना जाता था और मेडिज राज्य का राजा होने के लिए यह गुण प्रमुख अहर्ता (qualification) थी. फ्रोर्तेस भी देइओकेस की तरह मेदी गण (Republic) का गण-प्रमुख था.
नाबोनिदुस ने मेडीस के लिए मंदा (Manda) शब्द प्रयुक्त किया है. क्याक्सारेस ने 606 ईस्वी पूर्व में निनेवेह को समाप्त कर मदेइ राज्य की स्थापना की थी. हालाँकि प्रो. सायके का मानना है कि मदा और मेदाई अलग अलग हैं. मदा अधिनायक (Authoritarian) है, वही मदई गणतंत्रवादी (Republican) है.
ओक्सुस नदी के दक्षिण में बसी जातियों को मुस्लिम लेखकों ने मेद या मेंद कहा है. यह नाम मेदी या मंद्नेई के रूप में पंजाब के पुराने दस्तावेजों में भी उपलब्ध होता है. एलेग्जेंडर कन्निंघम उच्चारण भेद के अलावा इन्हें एक ही साबित करते है एवं वर्जिल का सबूत देते हुए बताते हैं कि सबसे पहले वर्जिल (Virgil) के उल्लेख में मेदुस ह्य्दास्पेस (Medus Hydaspes) शब्द प्रयुक्त हुआ है, टोलेमी इसे यूथी मीडिया (Euthy-Media) या सागल (Sagal) के नाम से उल्लेख करता है. इन सब सबूतों से साफ़ हो जाता है कि वर्जिल के समय यानि ईसा पूर्व पहली सदी में मेदी जाति पंजाब में निवासित (बसी हुई) थी. ईसा पूर्व की पहली सदी में जाट/जट भी सिंध में आ चुके थे, जो कि ओक्सुस (Oxus) नदी पर उनके पुराने पड़ोसी और शत्रु थे. मसूदी (915-91 ईस्वी) इन्हें मिंद कहकर उल्लेखित करता है. मुस्लिम आक्रमणों के समय ये कठियावाड और अरावली की ओर जा बसे. (Alexander Cunningham: Archaeological survey of India. Four Reports made during the years 1862-63-64-65. The Government Central Press, 1871, page-51-54). अरियन (Arrian) इंडिका (I.1.3) में लिखा है :- ‘the Indians between rivers Indus and Cophen (Kabul) were in ancient times subject to the Assyrians, afterwards to Medes and finally submitted to the Persians and paid to Cyrus the son of Cambyses, the tribute that he imposed on them.’ अर्थात सिन्धु और काबुल नदियों के बीच में रहने वाले भारतीय पहले असीरिया के अधीन थे, उसके बाद मेडिज के और अंत में पर्शियन के और साइरस को कर अदा करते थे. (अर्रियन बुक 8, INDICA में लिखा है:- “1. All the territory that lies west of the river Indus up to the river Cophen is inhabited by Astacenians and Assacenians, Indian tribes. But they are not like the Indians dwelling within the river Indus, tall of stature, nor similarly brave in spirit, nor as black as greater part of Indians. These long ago were subject to Assyrians; then to the Medes, and so they become subject to Persians;and they paid tribute to Cyrus son of Cambyses from their territory, as Cyrus commanded.” (Arrian with an English translation by E. Iliff Robson, B. D. Vol. 2, William Heinemann Ltd, Harvard University Press, Momxlix . pp-307)
ईसा से पहले लगभग 7वीं सदी में मेडिज ने असीरिया के विरुद्ध विद्रोह करके अपनी स्वतंत्र सत्ता कायम कर ली थी, अस्तु, सिन्धु-क्षेत्र में भी ईसा से 700 वर्ष पूर्व यहाँ मेडिज का शासन होना प्रमाणित होता है. इस सब साक्ष्यों से यह पुष्ट होता है कि ग्रीक-असीरिया के मेदे और सिन्धु-सागर (पंजाब) के मेद एक ही थे, जिन्हें भारत के पुराने शास्त्रीय-साहित्य (classical literature) में मद्र कहा गया है.
मद्र (Madra)- ‘मद्र’ भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित एक देश का नाम है, या उस देश के एक राजा का नाम है (बहुवचन में यह शब्द व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त होता है). यह शिबी के एक पुत्र का भी नाम है जो मद्रों का पूर्वज था. (Personal and Geographical names in Gupta Inscriptions, page-93). भारतीय साक्ष्यों में सबसे पहले हमें ऐतरेय ब्राह्मण और बृहदारण्यक उपनिषद् में मद्रों का सन्दर्भ मिलता है, जिसका रचना-काल वेदमतानुयायी 6ठी-7वीं शताब्दी होना अनुमानित करते हैं. ब्राह्दारंयक उपनिषद में वर्णित है कि यज्ञ-बलि के अध्ययन के लिए उद्दालक आरुणी मद्र-देश में पतंचल कप्य के घर जाता है. (ब्राह्दारंयक, 3.7), संख्यायन श्रोत सूत्र (सांख्य., 16.27.6) में उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु अपने पिता के पास मद्र देश जाता है. ऐतरेयब्राह्मण (8.14) में पृथ्वी के अलग-अलग इलाकों पर पांच-प्रकार की शासन-व्यवस्था का उल्लेख किया गया है और बताया गया है कि हिमालय के आगे उत्तर में उत्तर-कुरु और उत्तर मद्रों के जनपद है. इन जनपदों को वैराज्य कहा गया है. वैराज्य राज्य अधिनायकवादी (राजतन्त्र) राज्यों से अलग राज्य हुआ करते थे, जिनमें शासक का चुनाव जनता करती थी.
महाभारत में मद्र-देश को भारत का एक प्राचीन खंड कहा गया है. उसकी स्थिति झेलम नदी के पास बताई गयी है. पांडू की पत्नी माद्री वहीं की थी, जो शल्य की बहिन थी और जिससे पांडू के नकुल और सहदेव नामक दो पुत्र हुए. भीष्म के मद्र देश जाने और पांडू के लिए माद्री का हाथ मांगने का वर्णन महाभारत में हुआ है. (महाभारत, आदि-पर्व, अध्याय-112 व अन्य). सावित्री का पिता अश्वपति भी मद्र का था. द्युतिमान मद्र देश का राजा था, जिसकी पुत्री विजया से सहदेव की शादी हुई थी. (महाभारत, आदि पर्व, अध्याय, 95, श्लोक-80). देवी भागवत में सुन्धवा को मद्र देश का राजा कहा गया है (देवी भागवत, स्कंध-5), पद्मपुराण के सृष्टि-खंड में श्री कृष्ण की 8 रानियों में एक लक्षणा मद्र राजा की पुत्री कही गयी है. ब्रह्मानंद पुराण में अत्री महर्षि की 10 पत्नियों में एक मद्रा थी, जिससे सोम नाम का एक पुत्र हुआ, महाभारत के कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण मद्र और बाह्लिकों की बुराई करता है. (महाभारत, कर्ण-पर्व, अध्याय-44), मद्र-नरेश अश्वपति की पत्नी मालवी, जो सावित्री की माँ थी, उस से 100 पुत्र पैदा हुए, वे मालव कहलाते थे. (महाभारत, वन-पर्व, अध्याय-297). इस प्रकार से आख्यायनों और पौराणिक ग्रंथों में कई जगहों और संदर्भो में मद्रों का उल्लेख हुआ है. उनकी शासन सत्ता, राज्य और राजाओं के वर्णन के साथ-साथ उनके राज्यों की भौगोलिक स्थिति का वर्णन भी इन ग्रंथों में हुआ है, जो अर्रियन के वर्णन से मेल खाते हैं.
मद्रों के राज्यों को वैराज्य कहा गया है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र (8.2) में वैराज्य राज्यों का उल्लेख है. कौटिल्य ऐसे राज्यों की दुर्दशा का भी वर्णन करता है और इस प्रणाली को वह अच्छी नहीं मानता है. यह विदित है कि कौटिल्य राजशाही को पसंद करता था, इसलिए उसने इन गणराज्यों को राजा-विहीन और दुर्दशा वाला वर्णित किया और इस शासन प्रणाली को अस्वीकृत किया. अगर हम वैराज्य शब्द की उत्त्पति पर गौर करें तो देखते हैं कि सायण ने ऐतरेयब्राह्मण के भाष्य में वैराज्य के सन्दर्भ में इसे ‘विशेषेण राजत्वं‘ शब्द से परिभाषित किया है. एक अन्य जगह पर उसने वैराज्य को ‘इतरेभ्यो भूपतिभ्यो वैशिष्ट्यं’ कहा है. मार्टिन हौग, के. पी. जायसवाल और आर. सी. मजुमदार इसे राजा-विहीन शासन के समान मानते हैं और आर. शामाशास्त्री इसे विदेशी शासन के रूप में ग्रहण करते हैं .(देब, JASB, पृष्ठ-207)
इस सन्दर्भ में ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 188वें सूक्त के मन्त्र 4 से 6 दृष्टव्य है:
‘प्राचीनं बहिर्रोजसा सहस्रवीरम स्त्रणन. यत्रादित्या विराजथ. (ऋग. 1.188.4)
विराट सम्राद्विभ्विः प्रभ्वीर्बहिविश्च भूयसीश्च याः. दुरो घृतान्यक्षरण . (ऋग. 1.188.5)
सुरुक्मे ही सुपेशसाधि श्रिया विराजतः. उषासावेह सीदताम. (ऋ ग. 1.188.4)
इन मन्त्रों में हमें विराट और सम्राट शब्दों मिलते हैं, जो विराज शब्द से जुड़े हैं, ये शब्द तेजस्वी, विभु और शोभा आदि अर्थ के द्योतक हैं. विराट शब्द ‘वैराज्य’ की उपमा प्राप्त करता है. इससे स्पष्ट है कि प्रारंभिक रूप में ‘वैराज्य’ शासन का एक ख़ास तरह का था, जो अपने गुणों या प्रसिद्धि से जाना जाता था. ऋग्वेद में प्रयुक्त यही अर्थ ऐतरेयब्राह्मण (8) में लिया गया है, जहाँ राज्य विराट, सम्राट शब्द साथ-साथ आये हैं और ये शब्द शासन के स्वरूप का बखान करते हैं अर्थात ऐसे राज्य जो अपने तेज और शोभा से शासन करते हैं. यह अभिजात्य-वर्ग (Aristocracy) या कुलीन तंत्र को इंगित करता है जैसा कि ग्रीक दार्शनिक इसे कहते हैं. स्पष्टतः वैराज्य राज्यों में सत्ता की शक्ति जनता/जनपद यानि कि लोगों के समूह में सन्निहित होती थी. शासन के स्वरूप का यह प्रतिदर्श (नमूना) उस समय हमें दुनिया के अन्य भागों में भी मिलता है, इसलिए वैराज्य का अर्थ राजा-विहीन राज्य नहीं होता है, बल्कि एक ऐसा राज्य जिसके शासन की बागडोर जनता के हाथ में थी अर्थात ‘वैराज्य' शब्द गणराज्य का अर्थ देता है. इस अर्थ में मद्रों में गणतंत्र-व्यवस्था प्रचलित थी, यह भली प्रकार से स्पष्ट होता है.
मेदे लोगों ने ईसा-पूर्व 625 तक राजतन्त्र को अंगीकार कर लिया था. जातक कथाओं में वर्णित मद्रों की शासन-व्यवस्था इस बात की पुष्टि करती है. भगवन बुद्ध के समकालीन बिम्बसार ने मद्र राजकुमारी से शादी की थी, सम्भवतः वह अजातशत्रु की माँ थी. बुद्ध के समय मद्र की राजकुमारियां सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध रही हैं. इस प्रकार से यह तथ्य पुष्ट होता है कि असीरियन मेदे और भारतीय मद्र समकालीन थे. न केवल समकालीन थे, बल्कि वे एक ही मानव-समूह के लोग थे, यह भी स्पष्ट होता है.
यह स्पष्ट है कि ऐतरेयब्राह्मण और ब्रहदारन्यकोपनिषद में बताए गए ‘उत्तर मद्र’ 700 वर्ष पूर्व एक गणतंत्रात्मक शासन के अधीन हिमालय के आगे बसे हुए थे. उनकी शासन प्रणाली भी मिडिया में उस समय रह रहे मेदे या मेदाई लोगों के सामान ही गणतंत्रात्मक थी. जब बाद में मिडिया में मेदे लोगों ने राजतन्त्र प्रणाली को चुना तो भारत के उत्तर-मद्र लोगों में भी राजतन्त्र हावी रहा. भारतीय ग्रंथों में दर्ज हिमालय से परे उत्तर मद्रों का स्थान अर्रियन के मेदे लोगों के स्थान (अर्थात सिन्धु और काबुल नदी के बीच में अर्रियन जिन्हें मेदे कहकर वर्णित करता है, वे भारतीय साहित्य में मद्र के रूप में वर्णित हैं) से मिलता है. अतः इस साक्ष्य से मेदे और मद्र एक ही मानव-समूह प्रमाणित होता है.
मेदे और मद्र की पहचान या समानता के लिए ये संकेत महत्वपूर्ण हैं. इन संकेतों से संतोषपूर्ण ढंग से मेदे और मद्र का तादाम्य और पहचान होती है. उनकी समानता या तादाम्य को उनके धर्म और दर्शन के विचारों से भी समर्थन मिलता है, जो ग्रीक/पर्शियन ग्रंथों के साथ-साथ भारतीय वांग्मय (साहित्य) में प्रचुर मात्रा में मिल जाते हैं. प्राचीन काल में पंजाब को आरत्त देश भी कहा गया है, जिसे आर्य लोगों के लिए अच्छी जगह नहीं कहा गया है. इसे मद्र (मद्रका) और वाह्लिक लोगों से अधिवासित (Domiciled) भूमि कहा गया है. महाभारत (... अध्याय 40) में मलेच्चः कहा गया है. पाणिनी ने मद्रों को भद्र और mangal कहा है. (पाणिनी, 2.3.73; 5.4.67), पाणिनी सम्भवतः मद्र देश का ही था और वह श्वेतकेतु के समय की बात कर रहा है. पाणिनी के बाद में भी पंजाब में मद्र लोगों के अधिवासन (Domiciliation) के संकेत मिलते हैं. यह दारीउस (Darius) के भारत पर आक्रमण के समय की अवधि बैठती है, जब पर्शियन यहाँ बसे. हिन्दुओं ने उसी अर्थ में उनके लिए मद्र शब्द का प्रयोग किया, जिस अर्थ में अकेमेनियन समय में ग्रीक लोग मेदे या पर्शियन शब्द का इस्तेमाल करते थे.
महाभारत में वर्णित मद्र ही मेदे हैं, इस तथ्य की पुष्टि दुर्योधन द्वारा मद्र राजकुमार शल्य के सारथी के रूप में कर्ण को चुनने से भी होती है. (महाभारत,8, अध्याय-32).
मेग/मेघ
मेघ या मेग भारत का एक प्राचीन राजनैतिक और सांस्कृतिक जातीय समूह है. वर्तमान में यह जाति भारत के 10 राज्यों और 2 केंद्र प्रशासित राज्यों में अधिसूचित अनुसूचित जातियों में शुमार है. मारवाड़ मर्दुम शुमारी में मेघ जाति की उत्पत्ति ‘मेघ ऋषि’ से होना उल्लेखित किया गया है और ‘मेघ’ को ब्राह्मण उल्लेखित किया है. (राय बहादुर मुंशी हरदयालसिंह- रिपोर्ट- मर्दुम शुमारी राजमारवाड़ 1891,Marwar Census Report-1891, पृष्ठ-527) बॉम्बे गजेटियर (एन्थोवें, आर.ई- द ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ़ बॉम्बे, वोलू.3, कोस्मो पब्लिकेशन, 1922/1987, पृष्ठ: 43-52) बॉम्बे गजेटियर में मेघवालों की उत्पति और उनकी प्राचीनता के बारे में उल्लेख है कि- मेग, संभवतः तिमुर के मेगियन (Magians of Timur) है, जो रियासी जम्मू और अख़्नूर की वृहद् जनसँख्या है, ये निम्न जाति मूल-प्रजाति (pure race) है, दूसरी जगहों में यह बहिष्कृत या जाति-बाह्य है.
वर्तमान में यह प्रजाति (जातीय समूह, Race) भारत के 10 राज्यों- राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हिमाचल-प्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ व कर्णाटक- और 2 केंद्र प्रशासित प्रदेशों दिल्ली और चंडीगढ़- में निवास करती है. इस को मेग, मेघ, मेगवाल, मेघवाल, मेंग, मेंह्ग (Menhg), मेंघवार आदि नामों से भी पुकारा जाता है. ऐतिहासिक रूप से यह प्रजाति मूलतः पंजाब (एकीकृत भारत) की एक आदि-निवासी जाति है और आर्यों के भारत में आने से पहले सिन्धु-सागर यानि कि पंजाब की नदियों के मुहानों पर बस चुकी थी. मेघों को भारत (सिंध-सागर) में सबसे पहले बसने वाले पहले मानव समूह में रखा जाता है और उसे पंजाब की आदि-निवासी जाति कहा गया है. भारत में निवास करने वाली मानव-प्रजातियों को 1. प्राचीन तूरानी, 2. आर्य और 3. बाद के तूरानी व सीथियन, इन तीन भागों में विभक्त किया जाता है:- (“1. Early Turanians, or Aborigines. 2. Aryas, or Brahmanical Hindu. 3. Later Turanians, or Indo-Sythians. The early Turanians includes all those races of undeniable antiquity who do not belong to any one of the three classes of Aryas. Such are the Takkas and the Megs,........ call them Turanians”- Erhnology: Archaeological survey of India. Four Reports made during the years 1862-63-64-65. The Government Central Press, 1871, page-2). इस वर्गीकरण के अनुसार टक्का और मेग आदि सिंध-सागर के प्रारंभिक या मूल निवासी थे और वे मद्र कहलाते थे. प्लिनी के साक्ष्य से कन्निंघम बताते हैं कि ईसा की पहली शताब्दी में तक्षशिला का क्षेत्र अमंदा या अमंद्र कहा जाता था, जिसका उल्लेख मेदे (Mede) के प्रसंग में आ चुका है. अलेक्जेंडर कन्निंघम लिखते हैं, “........ But as, when first mentioned in history, about the beginning of the Christian era, we find them coupled with Bahikas or Madras of the Central Panjab, it is certain that they had already been ejected from their original seats, beyond the Jhelam. In the utter absence of all information, we can only make guess, more or less probable, regarding either the date or the cause of this event. Now, in the first century of our era, the District of Taxila was already called Amanda, or Amandra, a name which at once reveals the Awans of the present day, and their country Awankari………….As the latter is by far the more likely source, we may conclude with some probability that the Takkas had already been ejected previous to the expedition of Alexander. The cause of their ejectment, therefore, be assigned with much probability, to the immigration of Toranian colony of Gakars, whose settlement must have taken place either during the reign of Darius Hystaspes, or under the long lived Afrasiyab.” (Alexander Cunningham: Archaeological survey of India. Four Reports made during the years 1862-63-64-65. The Government Central Press, 1871, page-6).
इस पृष्ठभूमि में मेघ जाति के निवास की वर्तमान स्थिति से यह स्पष्ट होता है कि आज भी इनकी जनसंख्या का सर्वाधिक घनत्व प्राचीन काल के मद्र देश के भू-भागों में या उसके इर्द-गिर्द ही है अर्थात विभिन्न घटनाओं ने उन्हें विस्थापित होने को मजबूर किया तो वे आसपास के क्षेत्रों में जा बसे. ग्रीक इतिहासकारों ने उन्हें मेगले कह कर उल्लेख किया है. प्लिनी ने नेचुरल हिस्ट्री की 6ठी जिल्द में इस जाति का उल्लेख ‘मद्र' के नाम से न करके मेगल्लाए (megallae) के नाम से किया है, (H. Rackham: PLINY- Ntural History, with an English translation in the ten volumes, Vol.2, Libri 3-4, Harward University Press, Cambridge, 1912 pp-392-393), जिसे आजकल मेग/मेघ/मेंघवार/मेघवाल/मेगवाल आदि नामों से संज्ञात करते हैं. मेगास्थनीज की इंडिका में भी इस जाति को मेगल्लाए कहा गया है:- “The hill-tribes between the Indus and Lomanes are Cesi; the Cetriboni, who live in woods; then the Megallae, whose king is master of five hundred elephants and an army of horse and foot of unknown strengh; the Chrysei, the Parasangae,and Asangae,.....” (McCrindle: Ancient India: As described by Megasthenes and Arrian, Chuckervertty, Chatterjee & co., Ltd, Calcutta, 1926, pp-145-146, see also; Purana, Vol. 9, no. 1, All India Kashiraj Trust, Varanasi; january, 1967, pp-135 ). स्पष्टतः प्लिनी, अर्रियन और मेगास्थनीज आदि ने जिस मेगल्लाए जाति का वर्णन किया है, वे भारतीय लोग थे (Kalus Karttunen: India and the Hellenistic World, Studia Orientalia, Vol. 83, 1997, pp-100) और वे सिकंदर के आक्रमण के समय सतलुज नदी और उसके आसपास बसे हुए थे, परन्तु मध्यकाल में उनका कहीं पर भी नामोल्लेख नहीं मिलता है. इस सन्दर्भ में कन्निंघम लिखते हैं:- “..... I have failled in tracing their name in the middle ages, but I believe that we safely identify them with Mekei of Aryan, who inhabited the bank of the River Saranges near its confluence with Hydraotes………, it should be the same as the Satlaj. In the Sanskrit the Satlaj is called Satadru, or the “hundred channeled,” a name which is fairly represented by Ptolemy's Zaradrus, and also by Pliny’s Hesidrus, as the Sanskrit Sata become Hata in many of the W. Dialects. In its upper course the commonest name is Satrudr or Satudr, a spoken form of Satudra, which is only a corruption of the Sanskrit Satadru. By many Brahmans , however, Satudra is considered to be the proper name, although from the meaning which they give to it of “hundred bellied,” the correct form would be Satodru. Now Arrian’s Saranges means the “hundred divisions,” or “hundred parts,”in allusion to the numerous channels which the Satlaj takes just as it leaves the hills. According to this identification the Mekei, or ancient Megs, must have inhabited the banks of the Satlaj at the time of Alexander’s invasion,”
“In confirmation of this position, I cite the name of Megarsus, which Dionysius Periegetes gives to the Satlaj, along with the epithets of great and rapid. The name is changed to Cymander by Avienus, but as Priseian preserve it unaltered, it seems probable that we ought to read Mycander, which would assimilate it with the original of Dionysius. ………, it is most probable that we have the neme of the Meg tribe preserved in the Megarsus River of Dionysius. On comparing two names together, I think it possible that the original reading may have been Megandros, which would be equivalent to Sanskrit Megadru, or river of of the Megs. now in this very part of Satlaj, where the river leaves the hills,.......from him sprang Sahariya, who with his son Sal was turned out of Arabia, and migrated to the Island of Pundri; eventually they reached Mahmudsar, in Barara, to the west of Bhatinda, where they colonised seventeen villages. Thence they driven forth, and, after sundry migrations, are now settled in the districts of Patiala, Shahabad, Thanesar, Ambala, Mustafabad, Sadhora, and Muzafarnagar. From this account we can learn that the earliest location of the Meghs was to the westward of Bhatinda, that is on the bank of Satlaj............... The Megs of the Chenab have a tradition that they were driven from the plains by the early Muhammadans, a statement which we may refer either to the first inroads of Mahmud, in the beginning of the eleventh century, or the final occupation of Lahor by his immediate successors.” (Alexander Cunningham: Archaeological survey of India. Four Reports made during the years 1862-63-64-65. The Government Central Press, 1871, page- 12-13).
इन संकेतों से यह स्पष्ट होता है कि मेगल्लाए शब्द वर्तमान मेग/मेघ जाति का प्राचीन नाम है. मेगल्लाए शब्द को मल्लोई, मल्ल, मालव आदि के रूप में भी अनूदित किया गया है. वहीं पालि साहित्य से हमें ज्ञात होता है कि मल्ल पूर्वोत्तर भारत की एक प्राचीन क्षत्रिय जाति थी. यह भी ज्ञात होता है कि भगवान बुद्ध की समकालीन इस प्राचीन मल्ल जाति के उस समय पावा और कुसिनारा में प्रसिद्ध गणराज्य थे. (लॉ, बी. सी.: सम क्षत्रिया ट्राइब्स ऑफ़ एंशियेंट इंडिया, 1923, पृष्ठ 152-165) पूर्वोत्तर की इस मल्ल जाति का पश्चिमोत्तर मेगल्लाए/मल्लोई/मल्ल या मालव से क्या सम्बन्ध था, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन महाभारत से यह सुपठित है कि मद्र-नरेश की महारानी, जो सावित्री की भी माँ थी, उससे उत्पन्न उसके 100 पुत्र मालव कहलाते थे. इस साहित्यिक साक्ष्य से यह स्पष्ट है कि पश्चिमोत्तर के मेगल्लाए/मल्ल/मल्लोई/मालव जाति प्राचीन मद्र जाति से ही निकली हुई जाति थी. मेगल्लाए या मल्लोई अपने मूल-स्थान से विस्थापित होने के बाद मध्यभारत में जा बसे. मध्यकाल में मालवा के नाम से प्रसिद्ध भौगोलिक क्षेत्र इसी जाति के निवास-स्थान से पड़ा होगा, ऐसा स्पष्ट होता है. साथ ही पश्चिम में मारवाड़, जैसलमेर, बहावलपुर और भटनेर, बीकानेर आदि तक इस जाति के अधिनिवास के प्रमाण मिलते हैं. मध्य-काल में मारवाड़ का बाड़मेर क्षेत्र भी मालानी/मलानी कहा जाता था. इसका कारण भी इस क्षेत्र में उस समय मेगालाए/मल्लोई लोगों से अधिवासित होना ही रहा है. जहाँ से बाद में राजपूत सत्ता का उदय होता है. वर्तमान समय में भी इन क्षेत्रों में मेघ प्रजाति (रेस) का सर्वाधिक जनसँख्या घनत्व इन्हीं क्षेत्रों में है.
मूल शोध-पत्र का पीडीएफ़ आप यहाँ इस लिंक पर पढ़ सकते हैं → https://goo.gl/oaz2xg
(श्री ताराराम जी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मेघवंश : इतिहास और संस्कृति’ के लेखक हैं जिसके दो खंड प्रकाशित हो चुके हैं.)
मेदे (Mede) : मद्र (Madra) : मेग/मेघ (Meg/Megh)
लेखक : ताराराम
जोधपुर (राजस्थान)
सतलुज नदी के मुहानों और उसके आसपास के इलाकों में पुराने समय से बसी हुई जाति को रामायण, महाभारत, पुराण और अन्य संस्कृत व पालि साहित्य में मद्र कहा गया है. सभी स्रोतों से यह स्पष्ट है कि प्राचीन काल में मद्र लोग शुतुद्रु नदी के किनारे भी बसे हुए थे, जिसे आजकल सतलुज नदी कहते हैं. शुतुद्रू के नाम से सतलुज नदी का वर्णन ऋग्वेद में दो बार हुआ है. (ऋग्वेद, 3.33.1 व 10.75.5) वाल्मीकि रामायण में इस नदी के लिए शतद्रु शब्द का प्रयोग हुआ है. (वाल्मीकि कृत रामायण, 2.71.2), जिसका अर्थ किया जाता है- ‘शतधा द्रवति’ अर्थात 100 धाराओं वाली नदी. यह शब्द इस नदी का विशेषण है. शुतुद्रु नदी का सम्बन्ध घनिष्ठ रूप से मेगों से रहा है. सिकंदर के आक्रमण के समय मेग (मेघ) जाति सतलुज नदी के मुहाने पर बसी हुई थी.
कर्नल अलेक्जेंडर कनिंघम महोदय (आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया रिपोर्ट्स, वॉल्यूम-2, पृष्ठ-10) ने पहली बार हमारा ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि आज की मेग (मेघ) जाति भारत की पुरानी और पहले बसी हुई जाति है और प्रमाण के साथ यह बताया कि सिकंदर के आक्रमण के समय इस जाति की बस्तियां सतलुज, रावी, चिनाब और झेलम आदि नदियों के मुहानों पर बसी हुई थीं. ग्रीक और ईरानी साहित्य के मेगार्सुस और संस्कृत के मेगद्रु व शुतुद्रु शब्दों के मूल में जाकर कनिंघम महोदय ने दावे के साथ यह प्रमाणित किया है कि सिकंदर के आक्रमण के समय मेग जाति मुख्यतः सतलुज नदी के आसपास बसी थी और वर्तमान सतलुज नदी का ही उल्लेख ‘मेगार्सुस’ नदी के नाम से हुआ है. सभी साहित्यिक और भौगोलिक सबूतों के आधार पर कर्नल एलेक्जेंडर कनिंघम ने यह स्पष्ट किया कि वर्तमान ‘सतलुज नदी’ का प्राचीन नाम मेगद्रु था, जो बाद में शुतुद्रू और शुतुद्रू से शतद्रु और शतद्रु से सतलज हो गया.
पालि और संस्कृत के ग्रंथों में हुए वर्णन के अनुसार यह साफ़ होता है कि प्राचीन काल में सतलुज नदी के आसपास मद्र जाति बसी थी, न केवल इस इलाके में बल्कि उत्तर में हिमालय के परे बहुत बड़े फैले हुए इलाके में मद्र जाति फैली हुई/बसी थी. मद्र जाति के यहाँ बसे होने के कारण ही इन प्रदेशों को मद्र-देश कहा जाता था. जिसे हम आगे भी देखेंगे. ग्रीक और पर्शियन इतिहास के जानकारों ने इस इलाके में बसी जाति को मेदे (Mede) जाति का कहा है, जो उपनिषद, महाभारत, पुराण आदि संस्कृत ग्रंथों में वर्णित ‘मद्र' जाति से साम्यता रखती है यानि मेदे ही मद्र है और मद्र ही मेघ है. इस पृष्ठभूमि के साथ, उपलब्ध ऐतिहासिक और साहित्यिक स्रोतों के आधार पर, इस छोटे-से आलेख में प्राचीन इतिहास के मेदे (Mede) और मद्र (Madra) पर विचार के साथ उनके निवास स्थानों की प्रासंगिक और उचित चर्चा और उस से प्राप्त हुई जानकारी से वर्तमान मेग (मेघ) जाति के पुराने इतिहास की जानकारी देने की एक छोटी-सी कोशिश की गई है.
वाल्मीकि रामायण में भरत जिस रास्ते से अयोध्या लौटता है, उस रास्ते में आने वाली नदियों का उल्लेख वाल्मीकि ने किया है, जिस में सतलुज का उल्लेख शतद्रु के नाम से हुआ है. (रामायण, अयोध्याकाण्ड, 71.1-9), पुराणों (भागवत पुराण- 5.18.18, विष्णु पुराण- 2.3.10) में इस नदी का उल्लेख हुआ है, यह उल्लेख कहीं कहीं पर शुतुद्रू, कहीं कहीं पर शिताद्रु, कहीं कहीं पर सिताद्रू आदि के रूप में मिलता है. (शब्दकल्पद्रुम और भारतद्विरूपकोश, मोनिएर विलियम, तथा नन्दो लाल डे; जियोग्राफिकल डिक्शनरी ऑफ़ एंशियेंट एंड मिडिवल इंडिया, तीसरा संस्करण, दिल्ली, 1971, पृष्ठ-187, ओ. पी. भारद्वाज कृत स्टडीज इन द हिस्टोरिकल जियोग्राफी ऑफ़ एंशियेंट इंडिया में उद्धृत, पृष्ठ-178) अलबरूनी ने इसे शतरुद्र कहा है, जिसे पंजाब में शतद्रु/सतलदर आदि भी बोला जाता है. स्कन्द-पुराण में इस नदी को शतरुद्रिका कहा गया है. (भारद्वाज, ओ पी : स्टडीज इन द हिस्टोरिकल जियोग्राफी ऑफ़ एंशियेंट इंडिया, संदीप प्रकाशन, दिल्ली, 1986, पृष्ठ 177-178 ). इस नदी को सारंग भी कहा गया है. (विलियम विन्सेंट, डी. डी., द वॉयेज ऑफ़ नेअर्चुस फ्रॉम इंडस टू द यूफ्रातेस, टी. कादल जुन. एंड डब्ल्यू. दविएस, लंदन, पृष्ठ-76.) स्पष्ट यह है कि इस नदी के लिए ऋग्वेद में इस्तेमाल शब्द शुतुद्रु से आज के सतलज शब्द की यात्रा कई सांस्कृतिक पड़ावों से होकर गुजरी है और ये शब्द इस नदी के मूल नाम मेगद्रु शब्द को संस्कृतनिष्ठ बनाने के फेर में साहित्य में प्रयुक्त हुए हैं. इस नदी का मूल या प्रारंभिक नाम, जैसा कि कनिंघम महोदय ने गवेषित (रिसर्च) किया, मेगद्रु रहा है (आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया रिपोर्ट्स, वॉल्यूम-2, पृष्ठ-11 से 13), डाइयोनिसस (Dionysius Periegetes) ने इस नदी (सतलुज नदी) के लिए Megarsus (Megandros) शब्द प्रयुक्त किया है, जो संस्कृत के मेगद्रु के समतुल्य है. इस नदी का उल्लेख एविएनुस (Avienus) ने Cymander, प्लिनी ने Hesidros नदी के नाम से किया है. टोलेमी ने सतलुज नदी हेतु ज़राद्रस (zaradrus/zadadrus) शब्द का प्रयोग किया है. कई अन्य ईरानी और ग्रीक इतिहासकारों ने इस से मिलते-जुलते शब्दों का प्रयोग इस नदी को संबोधित करने हेतु किया है. (आर्कियोलॉजिकल रिपोर्ट्स-1863-64, पृष्ठ-12 ). ईरान और फ़ारस में नदियों के नाम पर वहां के निवासियों का नामकरण करने की एक आम-परंपरा रही है, यथा भारत के लिए वे लोग हप्त-हिंदु शब्द प्रयुक्त करते हैं. इस प्रकार से ‘मेगद्रु नदी’ के मुहानों पर बसे हुए लोग ही आगे चलकर मेग कहलाये, जो वैदिक साहित्य में मद्र और प्राचीन ईरानी व यूनानी साहित्य-इतिहास में मेदे (Mede) या मेदेस/मेडिज़ आदि के रूप में वर्णित किये गये हैं.
मेदे (Mede)- मेदे (Mede) शब्द इतिहास में पहली बार ईसा-पूर्व 9वीं शताब्दी में असीरिया के दस्तावेजों में अमदाई (Amadai) के रूप में प्रकाश में आता है. प्राचीन काल में ‘मेदे’ प्रजाति अमर्दुस (Amardus) नदी के तट पर बसी हुई थी. वे ही बाद में मेदे/मडई (Mede/Madai) कहे जाने लगे. ईरानी परंपरानुसार Amadai शब्द में अ विलुप्त कर लिए जाने पर वे इन्हें मैदे या मदे/मेदी बोलते थे, इस प्रकार से अमर्दुस में प्रयुक्त ‘अ' विलुप्त हो कर मैदे शब्द रह गया. मेला पोम्पोनिउस (प्रथम शताब्दी ईस्वी) कैस्पियन सागर के पास अमार्दी (Amardi) राष्ट्र का जिक्र करता है. असीरिया से प्राप्त दस्तावेजों के शब्द में ‘r’ अक्षर नहीं मिलता है, वरना ये शब्द पूरी तरह मिलते हैं. हरित कृष्णा देब एक शोध-आलेख ‘मेदे और मद्र (Mede and Madra)’ में यह स्पष्ट करते हैं कि हमें असीरिया के मदई (Madai) शब्द को मर्दा {ma(r)da} के समान लेना चाहिए, जो संस्कृत के मद्र शब्द की जाँच-पड़ताल (ये शब्द एक ही है) को युक्तियुक्त बनाते हैं. (Journal and Proceedings of the Asiatic Society of Bengal, new series, Vol. 21, 1925, Pp. 205-210)
मेडिज के शुरुआती इतिहास को जानने के लिए हेरोडोटस एक प्रमुख स्रोत है. वह वर्णन करता है कि लगभग 1700 ईस्वी पूर्व मेदेस ने असीरियन प्रभुत्व के विरुद्ध विद्रोह किया था. वे अलग-अलग गांवों में बिखरे हुए बिना किसी एक केन्द्रीय सत्ता के निवास करते थे. उनके प्रत्येक गाँव में एक न्यायधीश/पञ्च होता था. हालाँकि वे देइओकेस (Deioces) के जैसी प्रतिष्ठा के नहीं थे, जिसे आसपास के गाँव वाले अपने विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थ के रूप में बुलाते थे, परन्तु उनके हर-एक ग्राम में उनका न्यायाधीश या पञ्च होता था, जो उनका मुखिया होता था. जब देइओकेस ने अपने आप को मध्यस्थता हेतु असमर्थ और परिहार्य महसूस किया तो उसने मध्यस्थता करनी छोड़ दी. ऐसी स्थिति में सब जगह अराजकता फैल गयी. इस अराजकता को समाप्त करने के लिए सभी मेडीस एक जगह एकत्रित हुए और देइओकेस को अपना राजा चुना. उसके बाद उसका पुत्र फ्रोर्तेस उनका राजा हुआ और उसने पर्शिया को जीत कर मेदी राज्य की सीमा पर्शिया तक फैलाई. उसने पड़ोस के असीरिया राज्य पर भी धावा बोला, जिसकी राजधानी उस समय निनेवेह थी, परन्तु उसे जीत नहीं मिली. फ्रोर्तेस के बाद क्याक्सारेस सिंहासन पर बैठा. उसने लीडिया पर आक्रमण किया. इन सब की और बाद के राज-काज की ऐतिहासिकता प्रमाणित है.
देइओकेस की प्रतिष्ठा या विश्वसनीयता उसकी ईमानदारी और इंसाफ़पसंदी से थी, उस समय मदे लोग भी ग्रीक लोगों की तरह छोटे-छोटे राज्यों में बँटे हुए थे और प्रत्येक राज्य का एक अधिपति होता था, जो उनका राजा होता था. प्रत्येक नगर उसके आदेशों की पालना करता था. ईमानदारी और इंसाफ़पसंदी प्रत्येक मेदी का एक विशिष्ट गुण माना जाता था और मेडिज राज्य का राजा होने के लिए यह गुण प्रमुख अहर्ता (qualification) थी. फ्रोर्तेस भी देइओकेस की तरह मेदी गण (Republic) का गण-प्रमुख था.
नाबोनिदुस ने मेडीस के लिए मंदा (Manda) शब्द प्रयुक्त किया है. क्याक्सारेस ने 606 ईस्वी पूर्व में निनेवेह को समाप्त कर मदेइ राज्य की स्थापना की थी. हालाँकि प्रो. सायके का मानना है कि मदा और मेदाई अलग अलग हैं. मदा अधिनायक (Authoritarian) है, वही मदई गणतंत्रवादी (Republican) है.
ओक्सुस नदी के दक्षिण में बसी जातियों को मुस्लिम लेखकों ने मेद या मेंद कहा है. यह नाम मेदी या मंद्नेई के रूप में पंजाब के पुराने दस्तावेजों में भी उपलब्ध होता है. एलेग्जेंडर कन्निंघम उच्चारण भेद के अलावा इन्हें एक ही साबित करते है एवं वर्जिल का सबूत देते हुए बताते हैं कि सबसे पहले वर्जिल (Virgil) के उल्लेख में मेदुस ह्य्दास्पेस (Medus Hydaspes) शब्द प्रयुक्त हुआ है, टोलेमी इसे यूथी मीडिया (Euthy-Media) या सागल (Sagal) के नाम से उल्लेख करता है. इन सब सबूतों से साफ़ हो जाता है कि वर्जिल के समय यानि ईसा पूर्व पहली सदी में मेदी जाति पंजाब में निवासित (बसी हुई) थी. ईसा पूर्व की पहली सदी में जाट/जट भी सिंध में आ चुके थे, जो कि ओक्सुस (Oxus) नदी पर उनके पुराने पड़ोसी और शत्रु थे. मसूदी (915-91 ईस्वी) इन्हें मिंद कहकर उल्लेखित करता है. मुस्लिम आक्रमणों के समय ये कठियावाड और अरावली की ओर जा बसे. (Alexander Cunningham: Archaeological survey of India. Four Reports made during the years 1862-63-64-65. The Government Central Press, 1871, page-51-54). अरियन (Arrian) इंडिका (I.1.3) में लिखा है :- ‘the Indians between rivers Indus and Cophen (Kabul) were in ancient times subject to the Assyrians, afterwards to Medes and finally submitted to the Persians and paid to Cyrus the son of Cambyses, the tribute that he imposed on them.’ अर्थात सिन्धु और काबुल नदियों के बीच में रहने वाले भारतीय पहले असीरिया के अधीन थे, उसके बाद मेडिज के और अंत में पर्शियन के और साइरस को कर अदा करते थे. (अर्रियन बुक 8, INDICA में लिखा है:- “1. All the territory that lies west of the river Indus up to the river Cophen is inhabited by Astacenians and Assacenians, Indian tribes. But they are not like the Indians dwelling within the river Indus, tall of stature, nor similarly brave in spirit, nor as black as greater part of Indians. These long ago were subject to Assyrians; then to the Medes, and so they become subject to Persians;and they paid tribute to Cyrus son of Cambyses from their territory, as Cyrus commanded.” (Arrian with an English translation by E. Iliff Robson, B. D. Vol. 2, William Heinemann Ltd, Harvard University Press, Momxlix . pp-307)
ईसा से पहले लगभग 7वीं सदी में मेडिज ने असीरिया के विरुद्ध विद्रोह करके अपनी स्वतंत्र सत्ता कायम कर ली थी, अस्तु, सिन्धु-क्षेत्र में भी ईसा से 700 वर्ष पूर्व यहाँ मेडिज का शासन होना प्रमाणित होता है. इस सब साक्ष्यों से यह पुष्ट होता है कि ग्रीक-असीरिया के मेदे और सिन्धु-सागर (पंजाब) के मेद एक ही थे, जिन्हें भारत के पुराने शास्त्रीय-साहित्य (classical literature) में मद्र कहा गया है.
मद्र (Madra)- ‘मद्र’ भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित एक देश का नाम है, या उस देश के एक राजा का नाम है (बहुवचन में यह शब्द व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त होता है). यह शिबी के एक पुत्र का भी नाम है जो मद्रों का पूर्वज था. (Personal and Geographical names in Gupta Inscriptions, page-93). भारतीय साक्ष्यों में सबसे पहले हमें ऐतरेय ब्राह्मण और बृहदारण्यक उपनिषद् में मद्रों का सन्दर्भ मिलता है, जिसका रचना-काल वेदमतानुयायी 6ठी-7वीं शताब्दी होना अनुमानित करते हैं. ब्राह्दारंयक उपनिषद में वर्णित है कि यज्ञ-बलि के अध्ययन के लिए उद्दालक आरुणी मद्र-देश में पतंचल कप्य के घर जाता है. (ब्राह्दारंयक, 3.7), संख्यायन श्रोत सूत्र (सांख्य., 16.27.6) में उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु अपने पिता के पास मद्र देश जाता है. ऐतरेयब्राह्मण (8.14) में पृथ्वी के अलग-अलग इलाकों पर पांच-प्रकार की शासन-व्यवस्था का उल्लेख किया गया है और बताया गया है कि हिमालय के आगे उत्तर में उत्तर-कुरु और उत्तर मद्रों के जनपद है. इन जनपदों को वैराज्य कहा गया है. वैराज्य राज्य अधिनायकवादी (राजतन्त्र) राज्यों से अलग राज्य हुआ करते थे, जिनमें शासक का चुनाव जनता करती थी.
महाभारत में मद्र-देश को भारत का एक प्राचीन खंड कहा गया है. उसकी स्थिति झेलम नदी के पास बताई गयी है. पांडू की पत्नी माद्री वहीं की थी, जो शल्य की बहिन थी और जिससे पांडू के नकुल और सहदेव नामक दो पुत्र हुए. भीष्म के मद्र देश जाने और पांडू के लिए माद्री का हाथ मांगने का वर्णन महाभारत में हुआ है. (महाभारत, आदि-पर्व, अध्याय-112 व अन्य). सावित्री का पिता अश्वपति भी मद्र का था. द्युतिमान मद्र देश का राजा था, जिसकी पुत्री विजया से सहदेव की शादी हुई थी. (महाभारत, आदि पर्व, अध्याय, 95, श्लोक-80). देवी भागवत में सुन्धवा को मद्र देश का राजा कहा गया है (देवी भागवत, स्कंध-5), पद्मपुराण के सृष्टि-खंड में श्री कृष्ण की 8 रानियों में एक लक्षणा मद्र राजा की पुत्री कही गयी है. ब्रह्मानंद पुराण में अत्री महर्षि की 10 पत्नियों में एक मद्रा थी, जिससे सोम नाम का एक पुत्र हुआ, महाभारत के कुरुक्षेत्र के युद्ध में कर्ण मद्र और बाह्लिकों की बुराई करता है. (महाभारत, कर्ण-पर्व, अध्याय-44), मद्र-नरेश अश्वपति की पत्नी मालवी, जो सावित्री की माँ थी, उस से 100 पुत्र पैदा हुए, वे मालव कहलाते थे. (महाभारत, वन-पर्व, अध्याय-297). इस प्रकार से आख्यायनों और पौराणिक ग्रंथों में कई जगहों और संदर्भो में मद्रों का उल्लेख हुआ है. उनकी शासन सत्ता, राज्य और राजाओं के वर्णन के साथ-साथ उनके राज्यों की भौगोलिक स्थिति का वर्णन भी इन ग्रंथों में हुआ है, जो अर्रियन के वर्णन से मेल खाते हैं.
मद्रों के राज्यों को वैराज्य कहा गया है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र (8.2) में वैराज्य राज्यों का उल्लेख है. कौटिल्य ऐसे राज्यों की दुर्दशा का भी वर्णन करता है और इस प्रणाली को वह अच्छी नहीं मानता है. यह विदित है कि कौटिल्य राजशाही को पसंद करता था, इसलिए उसने इन गणराज्यों को राजा-विहीन और दुर्दशा वाला वर्णित किया और इस शासन प्रणाली को अस्वीकृत किया. अगर हम वैराज्य शब्द की उत्त्पति पर गौर करें तो देखते हैं कि सायण ने ऐतरेयब्राह्मण के भाष्य में वैराज्य के सन्दर्भ में इसे ‘विशेषेण राजत्वं‘ शब्द से परिभाषित किया है. एक अन्य जगह पर उसने वैराज्य को ‘इतरेभ्यो भूपतिभ्यो वैशिष्ट्यं’ कहा है. मार्टिन हौग, के. पी. जायसवाल और आर. सी. मजुमदार इसे राजा-विहीन शासन के समान मानते हैं और आर. शामाशास्त्री इसे विदेशी शासन के रूप में ग्रहण करते हैं .(देब, JASB, पृष्ठ-207)
इस सन्दर्भ में ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 188वें सूक्त के मन्त्र 4 से 6 दृष्टव्य है:
‘प्राचीनं बहिर्रोजसा सहस्रवीरम स्त्रणन. यत्रादित्या विराजथ. (ऋग. 1.188.4)
विराट सम्राद्विभ्विः प्रभ्वीर्बहिविश्च भूयसीश्च याः. दुरो घृतान्यक्षरण . (ऋग. 1.188.5)
सुरुक्मे ही सुपेशसाधि श्रिया विराजतः. उषासावेह सीदताम. (ऋ ग. 1.188.4)
इन मन्त्रों में हमें विराट और सम्राट शब्दों मिलते हैं, जो विराज शब्द से जुड़े हैं, ये शब्द तेजस्वी, विभु और शोभा आदि अर्थ के द्योतक हैं. विराट शब्द ‘वैराज्य’ की उपमा प्राप्त करता है. इससे स्पष्ट है कि प्रारंभिक रूप में ‘वैराज्य’ शासन का एक ख़ास तरह का था, जो अपने गुणों या प्रसिद्धि से जाना जाता था. ऋग्वेद में प्रयुक्त यही अर्थ ऐतरेयब्राह्मण (8) में लिया गया है, जहाँ राज्य विराट, सम्राट शब्द साथ-साथ आये हैं और ये शब्द शासन के स्वरूप का बखान करते हैं अर्थात ऐसे राज्य जो अपने तेज और शोभा से शासन करते हैं. यह अभिजात्य-वर्ग (Aristocracy) या कुलीन तंत्र को इंगित करता है जैसा कि ग्रीक दार्शनिक इसे कहते हैं. स्पष्टतः वैराज्य राज्यों में सत्ता की शक्ति जनता/जनपद यानि कि लोगों के समूह में सन्निहित होती थी. शासन के स्वरूप का यह प्रतिदर्श (नमूना) उस समय हमें दुनिया के अन्य भागों में भी मिलता है, इसलिए वैराज्य का अर्थ राजा-विहीन राज्य नहीं होता है, बल्कि एक ऐसा राज्य जिसके शासन की बागडोर जनता के हाथ में थी अर्थात ‘वैराज्य' शब्द गणराज्य का अर्थ देता है. इस अर्थ में मद्रों में गणतंत्र-व्यवस्था प्रचलित थी, यह भली प्रकार से स्पष्ट होता है.
मेदे लोगों ने ईसा-पूर्व 625 तक राजतन्त्र को अंगीकार कर लिया था. जातक कथाओं में वर्णित मद्रों की शासन-व्यवस्था इस बात की पुष्टि करती है. भगवन बुद्ध के समकालीन बिम्बसार ने मद्र राजकुमारी से शादी की थी, सम्भवतः वह अजातशत्रु की माँ थी. बुद्ध के समय मद्र की राजकुमारियां सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध रही हैं. इस प्रकार से यह तथ्य पुष्ट होता है कि असीरियन मेदे और भारतीय मद्र समकालीन थे. न केवल समकालीन थे, बल्कि वे एक ही मानव-समूह के लोग थे, यह भी स्पष्ट होता है.
यह स्पष्ट है कि ऐतरेयब्राह्मण और ब्रहदारन्यकोपनिषद में बताए गए ‘उत्तर मद्र’ 700 वर्ष पूर्व एक गणतंत्रात्मक शासन के अधीन हिमालय के आगे बसे हुए थे. उनकी शासन प्रणाली भी मिडिया में उस समय रह रहे मेदे या मेदाई लोगों के सामान ही गणतंत्रात्मक थी. जब बाद में मिडिया में मेदे लोगों ने राजतन्त्र प्रणाली को चुना तो भारत के उत्तर-मद्र लोगों में भी राजतन्त्र हावी रहा. भारतीय ग्रंथों में दर्ज हिमालय से परे उत्तर मद्रों का स्थान अर्रियन के मेदे लोगों के स्थान (अर्थात सिन्धु और काबुल नदी के बीच में अर्रियन जिन्हें मेदे कहकर वर्णित करता है, वे भारतीय साहित्य में मद्र के रूप में वर्णित हैं) से मिलता है. अतः इस साक्ष्य से मेदे और मद्र एक ही मानव-समूह प्रमाणित होता है.
मेदे और मद्र की पहचान या समानता के लिए ये संकेत महत्वपूर्ण हैं. इन संकेतों से संतोषपूर्ण ढंग से मेदे और मद्र का तादाम्य और पहचान होती है. उनकी समानता या तादाम्य को उनके धर्म और दर्शन के विचारों से भी समर्थन मिलता है, जो ग्रीक/पर्शियन ग्रंथों के साथ-साथ भारतीय वांग्मय (साहित्य) में प्रचुर मात्रा में मिल जाते हैं. प्राचीन काल में पंजाब को आरत्त देश भी कहा गया है, जिसे आर्य लोगों के लिए अच्छी जगह नहीं कहा गया है. इसे मद्र (मद्रका) और वाह्लिक लोगों से अधिवासित (Domiciled) भूमि कहा गया है. महाभारत (... अध्याय 40) में मलेच्चः कहा गया है. पाणिनी ने मद्रों को भद्र और mangal कहा है. (पाणिनी, 2.3.73; 5.4.67), पाणिनी सम्भवतः मद्र देश का ही था और वह श्वेतकेतु के समय की बात कर रहा है. पाणिनी के बाद में भी पंजाब में मद्र लोगों के अधिवासन (Domiciliation) के संकेत मिलते हैं. यह दारीउस (Darius) के भारत पर आक्रमण के समय की अवधि बैठती है, जब पर्शियन यहाँ बसे. हिन्दुओं ने उसी अर्थ में उनके लिए मद्र शब्द का प्रयोग किया, जिस अर्थ में अकेमेनियन समय में ग्रीक लोग मेदे या पर्शियन शब्द का इस्तेमाल करते थे.
महाभारत में वर्णित मद्र ही मेदे हैं, इस तथ्य की पुष्टि दुर्योधन द्वारा मद्र राजकुमार शल्य के सारथी के रूप में कर्ण को चुनने से भी होती है. (महाभारत,8, अध्याय-32).
मेग/मेघ
मेघ या मेग भारत का एक प्राचीन राजनैतिक और सांस्कृतिक जातीय समूह है. वर्तमान में यह जाति भारत के 10 राज्यों और 2 केंद्र प्रशासित राज्यों में अधिसूचित अनुसूचित जातियों में शुमार है. मारवाड़ मर्दुम शुमारी में मेघ जाति की उत्पत्ति ‘मेघ ऋषि’ से होना उल्लेखित किया गया है और ‘मेघ’ को ब्राह्मण उल्लेखित किया है. (राय बहादुर मुंशी हरदयालसिंह- रिपोर्ट- मर्दुम शुमारी राजमारवाड़ 1891,Marwar Census Report-1891, पृष्ठ-527) बॉम्बे गजेटियर (एन्थोवें, आर.ई- द ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ़ बॉम्बे, वोलू.3, कोस्मो पब्लिकेशन, 1922/1987, पृष्ठ: 43-52) बॉम्बे गजेटियर में मेघवालों की उत्पति और उनकी प्राचीनता के बारे में उल्लेख है कि- मेग, संभवतः तिमुर के मेगियन (Magians of Timur) है, जो रियासी जम्मू और अख़्नूर की वृहद् जनसँख्या है, ये निम्न जाति मूल-प्रजाति (pure race) है, दूसरी जगहों में यह बहिष्कृत या जाति-बाह्य है.
वर्तमान में यह प्रजाति (जातीय समूह, Race) भारत के 10 राज्यों- राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हिमाचल-प्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ व कर्णाटक- और 2 केंद्र प्रशासित प्रदेशों दिल्ली और चंडीगढ़- में निवास करती है. इस को मेग, मेघ, मेगवाल, मेघवाल, मेंग, मेंह्ग (Menhg), मेंघवार आदि नामों से भी पुकारा जाता है. ऐतिहासिक रूप से यह प्रजाति मूलतः पंजाब (एकीकृत भारत) की एक आदि-निवासी जाति है और आर्यों के भारत में आने से पहले सिन्धु-सागर यानि कि पंजाब की नदियों के मुहानों पर बस चुकी थी. मेघों को भारत (सिंध-सागर) में सबसे पहले बसने वाले पहले मानव समूह में रखा जाता है और उसे पंजाब की आदि-निवासी जाति कहा गया है. भारत में निवास करने वाली मानव-प्रजातियों को 1. प्राचीन तूरानी, 2. आर्य और 3. बाद के तूरानी व सीथियन, इन तीन भागों में विभक्त किया जाता है:- (“1. Early Turanians, or Aborigines. 2. Aryas, or Brahmanical Hindu. 3. Later Turanians, or Indo-Sythians. The early Turanians includes all those races of undeniable antiquity who do not belong to any one of the three classes of Aryas. Such are the Takkas and the Megs,........ call them Turanians”- Erhnology: Archaeological survey of India. Four Reports made during the years 1862-63-64-65. The Government Central Press, 1871, page-2). इस वर्गीकरण के अनुसार टक्का और मेग आदि सिंध-सागर के प्रारंभिक या मूल निवासी थे और वे मद्र कहलाते थे. प्लिनी के साक्ष्य से कन्निंघम बताते हैं कि ईसा की पहली शताब्दी में तक्षशिला का क्षेत्र अमंदा या अमंद्र कहा जाता था, जिसका उल्लेख मेदे (Mede) के प्रसंग में आ चुका है. अलेक्जेंडर कन्निंघम लिखते हैं, “........ But as, when first mentioned in history, about the beginning of the Christian era, we find them coupled with Bahikas or Madras of the Central Panjab, it is certain that they had already been ejected from their original seats, beyond the Jhelam. In the utter absence of all information, we can only make guess, more or less probable, regarding either the date or the cause of this event. Now, in the first century of our era, the District of Taxila was already called Amanda, or Amandra, a name which at once reveals the Awans of the present day, and their country Awankari………….As the latter is by far the more likely source, we may conclude with some probability that the Takkas had already been ejected previous to the expedition of Alexander. The cause of their ejectment, therefore, be assigned with much probability, to the immigration of Toranian colony of Gakars, whose settlement must have taken place either during the reign of Darius Hystaspes, or under the long lived Afrasiyab.” (Alexander Cunningham: Archaeological survey of India. Four Reports made during the years 1862-63-64-65. The Government Central Press, 1871, page-6).
इस पृष्ठभूमि में मेघ जाति के निवास की वर्तमान स्थिति से यह स्पष्ट होता है कि आज भी इनकी जनसंख्या का सर्वाधिक घनत्व प्राचीन काल के मद्र देश के भू-भागों में या उसके इर्द-गिर्द ही है अर्थात विभिन्न घटनाओं ने उन्हें विस्थापित होने को मजबूर किया तो वे आसपास के क्षेत्रों में जा बसे. ग्रीक इतिहासकारों ने उन्हें मेगले कह कर उल्लेख किया है. प्लिनी ने नेचुरल हिस्ट्री की 6ठी जिल्द में इस जाति का उल्लेख ‘मद्र' के नाम से न करके मेगल्लाए (megallae) के नाम से किया है, (H. Rackham: PLINY- Ntural History, with an English translation in the ten volumes, Vol.2, Libri 3-4, Harward University Press, Cambridge, 1912 pp-392-393), जिसे आजकल मेग/मेघ/मेंघवार/मेघवाल/मेगवाल आदि नामों से संज्ञात करते हैं. मेगास्थनीज की इंडिका में भी इस जाति को मेगल्लाए कहा गया है:- “The hill-tribes between the Indus and Lomanes are Cesi; the Cetriboni, who live in woods; then the Megallae, whose king is master of five hundred elephants and an army of horse and foot of unknown strengh; the Chrysei, the Parasangae,and Asangae,.....” (McCrindle: Ancient India: As described by Megasthenes and Arrian, Chuckervertty, Chatterjee & co., Ltd, Calcutta, 1926, pp-145-146, see also; Purana, Vol. 9, no. 1, All India Kashiraj Trust, Varanasi; january, 1967, pp-135 ). स्पष्टतः प्लिनी, अर्रियन और मेगास्थनीज आदि ने जिस मेगल्लाए जाति का वर्णन किया है, वे भारतीय लोग थे (Kalus Karttunen: India and the Hellenistic World, Studia Orientalia, Vol. 83, 1997, pp-100) और वे सिकंदर के आक्रमण के समय सतलुज नदी और उसके आसपास बसे हुए थे, परन्तु मध्यकाल में उनका कहीं पर भी नामोल्लेख नहीं मिलता है. इस सन्दर्भ में कन्निंघम लिखते हैं:- “..... I have failled in tracing their name in the middle ages, but I believe that we safely identify them with Mekei of Aryan, who inhabited the bank of the River Saranges near its confluence with Hydraotes………, it should be the same as the Satlaj. In the Sanskrit the Satlaj is called Satadru, or the “hundred channeled,” a name which is fairly represented by Ptolemy's Zaradrus, and also by Pliny’s Hesidrus, as the Sanskrit Sata become Hata in many of the W. Dialects. In its upper course the commonest name is Satrudr or Satudr, a spoken form of Satudra, which is only a corruption of the Sanskrit Satadru. By many Brahmans , however, Satudra is considered to be the proper name, although from the meaning which they give to it of “hundred bellied,” the correct form would be Satodru. Now Arrian’s Saranges means the “hundred divisions,” or “hundred parts,”in allusion to the numerous channels which the Satlaj takes just as it leaves the hills. According to this identification the Mekei, or ancient Megs, must have inhabited the banks of the Satlaj at the time of Alexander’s invasion,”
“In confirmation of this position, I cite the name of Megarsus, which Dionysius Periegetes gives to the Satlaj, along with the epithets of great and rapid. The name is changed to Cymander by Avienus, but as Priseian preserve it unaltered, it seems probable that we ought to read Mycander, which would assimilate it with the original of Dionysius. ………, it is most probable that we have the neme of the Meg tribe preserved in the Megarsus River of Dionysius. On comparing two names together, I think it possible that the original reading may have been Megandros, which would be equivalent to Sanskrit Megadru, or river of of the Megs. now in this very part of Satlaj, where the river leaves the hills,.......from him sprang Sahariya, who with his son Sal was turned out of Arabia, and migrated to the Island of Pundri; eventually they reached Mahmudsar, in Barara, to the west of Bhatinda, where they colonised seventeen villages. Thence they driven forth, and, after sundry migrations, are now settled in the districts of Patiala, Shahabad, Thanesar, Ambala, Mustafabad, Sadhora, and Muzafarnagar. From this account we can learn that the earliest location of the Meghs was to the westward of Bhatinda, that is on the bank of Satlaj............... The Megs of the Chenab have a tradition that they were driven from the plains by the early Muhammadans, a statement which we may refer either to the first inroads of Mahmud, in the beginning of the eleventh century, or the final occupation of Lahor by his immediate successors.” (Alexander Cunningham: Archaeological survey of India. Four Reports made during the years 1862-63-64-65. The Government Central Press, 1871, page- 12-13).
इन संकेतों से यह स्पष्ट होता है कि मेगल्लाए शब्द वर्तमान मेग/मेघ जाति का प्राचीन नाम है. मेगल्लाए शब्द को मल्लोई, मल्ल, मालव आदि के रूप में भी अनूदित किया गया है. वहीं पालि साहित्य से हमें ज्ञात होता है कि मल्ल पूर्वोत्तर भारत की एक प्राचीन क्षत्रिय जाति थी. यह भी ज्ञात होता है कि भगवान बुद्ध की समकालीन इस प्राचीन मल्ल जाति के उस समय पावा और कुसिनारा में प्रसिद्ध गणराज्य थे. (लॉ, बी. सी.: सम क्षत्रिया ट्राइब्स ऑफ़ एंशियेंट इंडिया, 1923, पृष्ठ 152-165) पूर्वोत्तर की इस मल्ल जाति का पश्चिमोत्तर मेगल्लाए/मल्लोई/मल्ल या मालव से क्या सम्बन्ध था, यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन महाभारत से यह सुपठित है कि मद्र-नरेश की महारानी, जो सावित्री की भी माँ थी, उससे उत्पन्न उसके 100 पुत्र मालव कहलाते थे. इस साहित्यिक साक्ष्य से यह स्पष्ट है कि पश्चिमोत्तर के मेगल्लाए/मल्ल/मल्लोई/मालव जाति प्राचीन मद्र जाति से ही निकली हुई जाति थी. मेगल्लाए या मल्लोई अपने मूल-स्थान से विस्थापित होने के बाद मध्यभारत में जा बसे. मध्यकाल में मालवा के नाम से प्रसिद्ध भौगोलिक क्षेत्र इसी जाति के निवास-स्थान से पड़ा होगा, ऐसा स्पष्ट होता है. साथ ही पश्चिम में मारवाड़, जैसलमेर, बहावलपुर और भटनेर, बीकानेर आदि तक इस जाति के अधिनिवास के प्रमाण मिलते हैं. मध्य-काल में मारवाड़ का बाड़मेर क्षेत्र भी मालानी/मलानी कहा जाता था. इसका कारण भी इस क्षेत्र में उस समय मेगालाए/मल्लोई लोगों से अधिवासित होना ही रहा है. जहाँ से बाद में राजपूत सत्ता का उदय होता है. वर्तमान समय में भी इन क्षेत्रों में मेघ प्रजाति (रेस) का सर्वाधिक जनसँख्या घनत्व इन्हीं क्षेत्रों में है.
मूल शोध-पत्र का पीडीएफ़ आप यहाँ इस लिंक पर पढ़ सकते हैं → https://goo.gl/oaz2xg
(श्री ताराराम जी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मेघवंश : इतिहास और संस्कृति’ के लेखक हैं जिसके दो खंड प्रकाशित हो चुके हैं.)
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