राजस्थान में समाज सुधार का कार्य और मेघवाल
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में बिखरे हुए मेघ-समाज को एकसूत्र में बांधने के लिए और इसकी दयनीय दशा में सुधार के लिए कई कृत-संकल्प लोग आगे आये। जिनमें मदाजी मेघ एक प्रमुख शख्सियत थे। आप तिंवरी के कणवारिया उमेदाराम जी कटारिया के अजीज मित्र थे। आपने इस हेतु सबसे पहले उमेदाराम जी को इस काम को हाथ में लेने हेतु राजी किया। इस हेतु कुछ बैठके तिंवरी और ओसियां में हुई। अंत मे एक खाका बनाया और मेघवंशी सुधार सभा बनाने का तय हुआ। जिससे मेघवाल पंचायतों की रूपरेखा बनी और पंचायतें वजूद में आयी।
समाज के सभी लोगों को इकट्ठा करना बड़ा मुश्किल काम था। मदाजी ने उमेदाराम जी को आश्वस्त किया कि वे घूम-घूम कर सभी पंचों को एक जगह इकट्ठा कर देंगे और आगे का काम वो संभाल ले। यह बात तय होने पर आपने इस हेतु मेघवालों के कई मौजिज लोगों से संपर्क करके उनको अपनी बैलगाड़ियों और ऊंठों से तिंवरी में इकट्ठा किया। अंत में विक्रम संवत 1972 यानी ईसवी सन 1915 के 3 मार्च को तिंवरी में मीटिंग हुई और मेघवंशी सुधार सभा यानी मेघवालों की पंचायतों का गठन हुआ। इस में मदा जी की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
उमेदाराम जी और मदा जी की अटूट दोस्ती जीवन भर बनी रही। इस दोस्ती को स्थायी बनाने के लिए मदा जी ने अपनी एकमात्र पुत्री को उमेदाराम जी के पुत्र जवाराराम जी को ब्याह कर इन संबंधों को और मजबूत कर दिया और हर समय वे उमेदाराम जी के साथ प्राणपण से जुड़े रहे।
समाज के इस अग्रज को कोटि कोटि नमन और इनके साथ ही उन सभी को भी नमन, जिन्होंने मेघवालों के मुक्ति संघर्ष में अग्रणीय भूमिका निभाई।🙏🙏
साभार- रामसा कड़ेला मेघवंशी की फेसबुक वॉल से
पुनश्च:
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से ही मेघवाल समाज एक तरफ बेगार के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था, तो दूसरी ओर सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध भी पंचायतों के माध्यम से कारगर उपाय कर रहा था। राजशाही के अंदर मेघवालों की पंचायतें अपना स्वतंत्र कार्य करती थी, जिस में राज का कोई उज्र या दखलंदाजी नहीं के बराबर थी। वह अपनी जाति और समाज के लिए न्याय हेतु नियम बनाने और लागू करने के लिए स्वतंत्र था। जोधपुर क्षेत्र में मेघवालों के रीति-रिवाज ठीक वैसे ही रहे, जैसे राजपूतों के रहे है। लेकिन कई मामलों में राजपूतों से अलग हटकर और प्रगतिशील रिवाज थे, यथा विधवा विवाह, गोद लेना आदि आदि। इन रिवाजों पर मेघवालों को राज को शुल्क या कर भी अदा करना पड़ता था।
राजपूतों के नियमों में परिवर्तन होने पर कई बार मेघवाल पंचायतें भी उसके अनुकूल अपने सामाजिक नियमों और व्यवहारों में परिवर्तन कर लेता था। ऐसा ही एक परिवर्तन 'त्याग' को लेकर हुआ। शादी-ब्याह और मृत्यु की गमी में लोग अनावश्यक रूप से खर्च करते थे। इस हेतु राजपूत सरदारों की एक मीटिंग संभवत मार्च, ईसवी सन 1888 को अजमेर में हुई। जिस में इन खर्चों को नियंत्रित करने के नियम बनाकर राजपूतों ने स्वीकार किये थे। सन 1915 को जब मेघवालों की पंचायत जुड़ी तो इस बाबत भी विस्तृत विचार-विमर्श हुआ और लाग-बाग तय हुए। सबसे महत्वपूर्ण त्याग से संबंधित था, जो राजपूतों में प्रचलित था। उस सभा में राजपूतों ने जो कायदे बनाये उसका प्रभाव मेघवालों की न्यात पर भी पड़ा। यह इनके तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है।
मेघवालों में शादी के समय 'त्याग' बांटने का रिवाज बहुत पुराने समय से व्याप्त था (इसका वर्णन मेघवंश : इतिहास और संस्कृति, भाग-2 में किया जा चुका है)। अन्यान्य कायदों के साथ यह तय हुआ कि हर विवाह में त्याग नहीं बांटा जाएगा बल्कि त्याग बांटने की प्रथा सिर्फ मोभरे यानी बड़े पुत्र के ब्याह में ही की जा सकेगी। त्याग बांटने का खर्चा लड़के वाला करेगा। लड़की वाला इसमें कोई अंशदान नहीं देगा, परंतु त्याग लड़की वाले के आंगन में ही पंचों के बीच बांटा जाएगा। त्याग की अधिकतम राशि पंचायत तय करेगी। उससे ज्यादा की राशि नहीं बांटी जा सकेगी। त्याग का क्षेत्र तय कर दिया गया। जिसमें त्याग बींद की पट्टी के गुरु, भाट, राव, वादी को ही दिया जाएगा, जिस पट्टी से बारात है। उसके अलावा दूसरी पट्टी के गरु, भाट आदि को त्याग देय नहीं होगा। त्याग की राशि को लेकर गरु, राव, भाट, वादी आदि कोई उज्र नहीं करेंगे और जो राशि उन्हें दी जाएगी उसी की स्वीकार कर गुणगान करेंगे।
सगाई की रस्म लड़की वाले के वहां होगी, जिसका खर्चा लड़की वाला वहन करेगा, लेकिन लाग-बाग और संभाल तथा अफीम आदि लड़के वालों की ओर से होगा और उसकी मात्रा तय कर दी गई। अगर दुबारा विवाह किया जाता है तो त्याग नहीं बांटा जाएगा। घराने या विधुर के विवाह में त्याग नहीं बांटा जाएगा। विधुर के विवाह की अधिकतम उम्र तय कर दी गयी। बहु-पत्नी पर बंदिशें लागू की---
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