मेघ जाति खांप सूमरा सोमरा सुमडा

Megh ethnology: Soomaras

सूमरा / सोमरा /सुमडा,

            सूमरा/सुमरा(डा) या सोमरा (soomara or somara) भी मेघवाल जाति की एक खांप है. उच्चारण भेद से कहीं कहीं इन्हें सुमरा, सूमरा ( रा की जगह डा या ड़ा भी उच्चारित किया जाता है )और कहीं कहीं सोमर या सोमरा कहा गया है. इस खांप की उत्पत्ति और सम्बन्ध भी सिंध से रहा है अर्थात इस खांप की उत्पत्ति भी सिंध-प्रदेश से हुई है। इस खांप का नामकरण ‘सोमर या सूमर’ नाम के एक प्रतापी व्यक्ति के नाम के पीछे हुआ अर्थात सूमर के वंशज सूमरा या सोमर कहलाये. ये लोग मेघ थे और अपने राजत्व काल में इस्माईली धर्म अपना लिया था. इस राजवंश की स्थापना के बाद में भी कुछ हिन्दू धर्म और कुछ मुस्लिम परस्त होते रहे है. इनका सिन्ध में ईसवी सं 1026 से 1356 तक शासन रहा है। ( हिस्टोरिकल एटलस ऑफ़ सूमरा किंगडम ऑफ़ सिंध में इसे इस्वी सन 1011 से 1351 दर्शाया है, देखें: एम्. एच. पन्ह्वार, संगम पब्लिकेशन, कराची ) अब्दुर रशीद गजनवी के शासन काल (हिजरी 444) तक सिंध के लोग गजनवियों को राजकर देते थे अर्थात वे गजनी के अधीन थे। उस समय गजनवी राज्य में उलट-फेर होने लगा और हिजरी सन 578 के आते-आते सिंध पर गोरियों का अधिकार होने लगा और शहाबुद्दीन के सेनापति नासिरुदीन कवाचा ने सिंध पर और अल्तमश ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। बाद में अल्तमश ने कवाचा को सिंध से भगा दिया और सिंध पर अधिकार कर लिया। उस समय से उसका नाममात्र का दिल्ली से सम्बन्ध रहा। वह एक तरह से स्वतंत्र शासक ही था। मुहम्मद शाह तुग़लक के समय सिंध का शासन (हिजरी सन 752) वहीँ के एक शासक वंश के हाथ से निकलकर वहीं के दूसरे शासक के हाथ में चला गया। हिजरी सन 762 में सुल्तान फीरोज़ शाह ने संधि करके उस पर अधिकार कर लिया और अंत में वहां के स्थानीय शासकों के हाथ में उसे सौंप दिया। जिनके हाथ में हिजरी सन 927 तक रहा। उनके हाथ से जीतकर अरगुन नाम के एक तातारी अमीर ने ले लिया और हिजरी सन 1000 के अंत में यह अकबर के अधिकार में आ गया। इस उथल-पुथल में न केवल नए राजवंश अस्तित्व में आये बल्कि जातियों में उनके नाम से नई खांपें भी बनी, सुमरा या सोमरी खांप उसी समय अस्तित्व में आई. 

                सूमरा और सम्मा: गजनवियों के दुर्बल हो जाने पर जिस स्थानीय कबीले ने सिंध को अपने अधिकार में लिया था, वह सोमरी/सुमरा या सुमड़ा कहलाता था।  सुमर, जिसे कहीं कहीं सोमर और कहीं कहीं सोमरा कहा गया है, उस ने सिंध में एक स्वतंत्र राज्य की नींव डाली, बाद में वह राज्य सोमर या सुमरा राज्य से प्रसिद्द हुआ. सोमर या सुमरा का सम्बन्ध सिंध की मेघ जाति, जिसे कहीं कहीं मेद या मेदी कहा गया है, से था. सोमर के बाद में कईं पीढ़ियों तक राज-लक्ष्मी इस के वंशधरों के हाथों में ही रही. अपने राज्य-संस्थापन के बाद इस खांप के लोग “सुमरा राज-वंश” से  जाने गए. मेघवालों की सुमरा खांप उसी राजवंश की वंशधर है। मुहम्मदशाह तुगलक के समय (हिजरी 752) में जिस दूसरे कबीले के हाथ में वहां का शासन गया और जिनके हाथ में रहा, वह सम्मा कहलाता था। इन दोनों कबीलों के मूल के विषय में इतिहास लेखकों में बहुत मतभेद है। विशेषकर, सोमरी या सूमड़ा(रा) वंश की जातीयता को लेकर तरह-तरह की बातें की जाती रही है। यहां सुमरा वंश के बारे में ही टिप्पणी है। सम्मा के लिए अलग टिप्पणी देखें।

  सूमरा कौन:
                     अरबी पुस्तकों में कहीं कहीं इन्हें मुसलमान, कहीं कहीं हिन्दू और कहीं कहीं इस्माईलिया कहा गया है. यह भी कहा गया है कि ये राजपूत नहीं थे। ( Rajput was a loose term for war-like people or those who became rulars, without any connection to Rajasthan ) शाम देश के इस्माईली  दुरुजियों के धार्मिक इमाम के एक पत्र में उस समय के इस वंश के राजा 'बल' के बारे में जानकारी मिलती है. राजा बल का अन्य नाम राजपाल था. इस पत्र में सोमर राजा बल को भौतरवा और हौदल हेला का असली उत्तराधिकारी होना लिखा है और इस वंश के बड़े-बड़े लोगों के नाम लिखे है. जिन में से कुछ नाम अरबी और कुछ भारतीय है. इस पत्र से स्पष्ट है कि हिजरी 422 ( सुल्तान मसऊद के समय ) में वहां शेख इब्न सोमर राजा बल था और वह इस्माईली धर्म का था. उसको दुरुजियों के इमाम ने मुल्तान और सिंध के इस्माईलियों का राज्य फिर से स्थापित करने के लिए बहुत कुछ भड़काया था और ऐसा न कर सकने के लिए उसे लज्जित किया था. उन में लज्जा का भाव उत्पन्न करते हुए पत्र में कहा गया है:
                   “हे प्रतिष्ठ राजा बल, अपने वंश को उठा. एक ईश्वर को मानने वालों को और दाऊद असग़र (छोटे दाऊद) को सच्चे धर्म में फिर से ले आ. मसऊद ने अभी हाल में ही उसे कारागार और दासता से मुक्त किया है और इसका कारण यह है कि तू अपना वह कर्तव्य पूरा कर सके. जो तुझे उसके भानजे अब्दुल्लाह और मुल्तान के सब निवासियों के विरुद्ध पूरा करने के लिए सौंपा है. जिस में ‘तकदीस और तौहीद’ के मानने वाले मुर्खता, हठ और धर्मद्रोह वाले दल से अलग हो जा….” ( तकदीस और तौहीद, इस्मईलिया मत में ईश्वर को निर्गुण माना गया है/ हिन्दू  धर्म में उस समय ईश्वर को निर्गुण मानने के संकेत मिलते है, उससे दूर रहने का कहा गया है ) 

                  इस पत्र से कईं बातें उजागर होती है: ये सोमर लोग सिंध के ही निवासी थे और जिन्होंने इसके बाद सुमरा/ सोमरी वंश चलाया था. वे या तो इस्माईलिया थे या ऐसी ही किसी गैर-हिन्दू व गैर-मुस्लिम परम्परा के अनुयायी थे। यह स्पष्ट है कि मुस्लिम धर्म अंगीकार करने से पहले वे धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से गैर मुस्लिम परंपरा के अनुयायी रहे है। इनके नाम हिन्दू-भारतीय ढंग के भी है और अरबों के ढंग के भी. इससे यह पता चलता है कि इस वंश वालों में अरब वालों और भारतवासियों का मेल था. मुल्तान के बादशाह अब्दुलफतह दाऊद और सिंध के ये सोमरी लोग एक ही धर्म के मानने वाले थे. इससे यह तय होता है कि सिंध के इस क्षेत्र में इस्लाम धर्म को स्वीकार करने वाले ये पहले लोग थे. इस पत्र से यह भी मालूम होता है कि सोमर कोई बहुत बलवान आदमी था. उसके वंशज ही सोमरी या सुमरा लोग है, जो इस पत्र के बीस वर्ष बाद सुल्तान अब्दुर रशीद बिन महमूद गजनवी (मृत्यु हिजरी 444) के दुर्बल शासन के समय में गजनवियों की जगह सिंध के मालिक हो गए थे.
               सोमरो यानि सूमरों (सोमारियों) का यह राज्य हिजरी सन 444 से 734 के कई वर्ष बाद तक किसी न किसी प्रकार से बना रहा. इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण साक्षी  इब्नबतूता की मिलती है. वह हिजरी सं 734 में सिंध के रास्ते भारत आया था. उस समय सुमरा / सोमरी जाति दिल्ली के सुल्तानों की अधीनता में शासन करती थी. इब्न बतूता ने उसे देखा था, वह लिखता है:
                   " इसके बाद हम जनानी पहुंचे, जो सिंधु नदी के किनारे एक सुंदर और बड़ा नगर है और जिसमें सुंदर बाजार हैं. यहां के निवासी वे लोग हैं जिन्हें सामरा कहते हैं. ये लोग और इनके पुरखे उस समय यहां आकर बसे थे, जब हज्जाज के समय में सिंध जीता गया था. जैसा कि इतिहास लेखको ने लिखा है……. ये लोग  जो सामरा कहलाते हैं किसी के साथ भोजन नहीं करते और ना भोजन करने के समय इन्हें कोई देख सकता है. न तो वे और लोगों के साथ और ना और लोग उनके साथ ब्याह-शादी करते हैं. इस समय उन लोगों का जो अमीर है उसका नाम वनार है…….”
                   आगे वह सेविस्तान यानी सेहवान ( सेहवान अब कराची जिले में है) का वर्णन करता हुआ कहता है कि   “ इस नगर के सामरी अमीर वनार, जिसका नाम पर आ चुका है और अमीर केसर रूमी रहते हैं और यह दोनों सुल्तान दिल्ली के अधीनता में है. इन दोनों के साथ 1800 सवार थे. यहाँ एक हिंदू रहता था, जिसका नाम रतन था और जो हिसाब किताब बहुत अच्छा जानता था.  वह कुछ अमीरों के साथ सुल्तान के दरबार में गया. सुल्तान ने उसको पसंद किया और उसको हिंद के राजा की उपाधि दी और राजा के योग्य माही मरातिब  देकर उसे सेविस्तान भेजा और वह स्थान उसको जागीर में दे दिया. जब वह वहां पहुंचा तब वनार और कैसर को यह देखकर बहुत ही बुरा लगा ………….... उन दोनों ने आपस में सलाह करके उसे मार डाला और खजाना लूट लिया.  फिर सब ने मिलकर ओनार को मलिक फिरोज को उपाधि देकर अपना बादशाह बना लिया……... फिर वनार यह समझ कर डरा कि मैं इस समय अपने कबीले से दूर हूँ ,... इसलिए वह अपने कबीले में चला गया…...लश्कर वालों ने कैसर को अमीर बना लिया……. जब मुल्तान के नायब के पास यह खबर पहुंची, तब उसने उसे दंड देने के लिए सेना भेजी और उसे कड़ा दंड दिया .
                   इब्न बतूता उसी समय वहां पहुंचा था. वह एक मदरसे में ठहरा था. लाशों की बदबू से उसे नींद नहीं आती थी.  इन उद्धतरणों से कई बातें प्रमाणित होती है. यथा: सोमरी (सुमरा लोग) लोग कहते हैं थे कि हमारे पुरखे हज्जाज बिन युसूफ सकफ़ी के साथ यहाँ आकर बसे थे. धर्म के विचार थे वे हिंदू नहीं थे और हिंदुओं के अधीन रहना पसंद नहीं करते थे. साथ ही उनमें कुछ बातें ऐसी भी पाई जाती थी, जो उन्हें साधारण मुसलमानों से अलग करती थी. उस समय सिंध पर दिल्ली के सुल्तान का इस प्रकार का अधिकार था कि सुल्तान की ओर से वहां एक अमीर (रेजिडेंट) सोमरियों के साथ रहता था. राजकीय शासन और व्यवस्था में सिंध मुल्तान के अधीन होकर दिल्ली के अधीन था. 

 सोमरा का धर्म
                     दुरुज वाले पत्र से सोमरा का इस्माईली होना सिद्ध होता है, जो उस समय मेघों में प्रचलित था. इसके सिवा इब्नबतूता से कुछ और बातों का भी पता चलता है. इब्नबतूता के इस वर्णन से प्रकट होता है कि सुमरा लोग अरब विजेताओं के साथ भारत में आकर बसे थे. यह बात प्रमाणित नहीं होती है, इसे आगे स्पष्ट किया गया है, वहां देखें। यह भी स्पष्ट है कि ये लोग राजपूत नहीं हो सकते हैं, दूसरी ओर  इसके साथ ही यह भी स्पष्ट है कि खाने-पीने और ब्याह-शादी आदि के संबंध में इन लोगों में कुछ ऐसी रश्में भी थी, जो मुसलमानों में नहीं होती है अर्थात ये न तो राजपूत थे और न मुसलमान। इतना होने पर भी वे लोग अपने आप को हिंदूओं से अलग समझते थे और अपने को काफ़िर भी नहीं समझते थे, बल्कि मुवहहिद यानी एक ईश्वर को मानने वाले वाला बताते थे। जो उस समय के मुस्लिम धर्म की मान्यता के समान था। इस आधार पर वे मुसलमान ही समझते थे और मुसलमानी उपाधि 'मलिक फिरोज' धारण करते थे. वे काफिर के अधीन रहने में अपनी अप्रतिष्ठा समझते थे, इसलिए वे कभी हिंदू नहीं थे( डॉ अर्नाल्ड कृत प्रीचिंग ऑफ़ इस्लाम, पृष्ठ-293)..
                   ऐसा धर्म और ऐसी आस्था उस समय मेघों में वहां प्रचलित थी. मुस्लिम दृष्टिकोण से ऐसा संकर धर्म-करमतियों और  इस्माईलियों का ही था, जो इस्लाम के साथ हर जगह कुछ स्थानीय नीतियों और विश्वास आदि मिला लेते थे. उन्होंने भारत में हजरत अली को विष्णु का अवतार बनाया था. इसी प्रकार की और बातें भी वे अपने धर्म में मिला लेते थे.  इससे उन्हें हर देश में अपने धर्म का प्रचार करने में सुविधा होता था. इस्माईलिया धर्म-प्रचार ने उन्हें इस्लाम के झंडे नीचे ला खड़ा किया।
                    इतिहास में इस बात का प्रमाण मिलता है कि पुराने समय में इस्माईलियों के किले अल्मुत से उनके धर्म का प्रचार करने वाले लोग सिंध में आए थे. अपने धार्मिक विश्वासों को छिपाने की प्रथा भी उन्हीं लोगों में थी. वे अपने नाम भी हिंदुओं के ढंग से के रख लेते थे. उनके प्रभाव से सिंध की बहुत सी जातीय इस्लाम के दायरे में आ गयी थी. आजकल भी मुंबई की खोजा जाति में इन बातों के उदाहरण मिल सकते हैं और उस समय के मेघों में ऐसे नामों का बहुधा प्रचलन था। अन्य जातियां भी इससे बच नहीं सकी।
                    मुल्तान के शेख उल इस्लाम जकरिया के शिष्य के शिष्य मखदूम जहानिया सैयद जलालुद्दीनबुखारी ( हिजरी सं 707-800 ) के वर्णनो में इस बात में एक विलक्षण घटना मिलती है. ये सिंध के ऊच नगर में रहते थे और वहां सर्वप्रिय और सर्वमान्य थे. उनके वर्णन में लिखा है कि एक बार ऊच का वाली सोमरा इनकी सेवा में आया. दरवेशों या फकीरों की भीड़ लगी हुई थी. सोमरा ने उनमें से किसी एक को बिना हजरत की आज्ञा के मस्जिद से बाहर निकाल दिया. उस समय मखदूम की जुबान से निकला- ‘सोमरा मगर दीवाना शुदई’ अर्थात सोमरा शायद तू पागल हो गया. आगे कहा गया है कि उसी समय सोमरा पागल हो गया.  नगर में इस बात की धूम मच गई. अंत में उसकी मां ने आकर बहुत प्रार्थना की, तब जाकर उसका अपराध क्षमा हुआ और वह होश में आया.  मस्जिद में आकर उसने मखदूम के पांव चूमे और उनका शिष्य हुआ, जो ईश्वर के दरबार में मान्य हुआ.
 क्या इस घटना से यह समझा जाए कि वह इस्माइली धर्म का त्याग करके सुन्नी  हो गया…….
                    इस्माईली धर्म के मिश्र-वाले फातिमा राज्य का अंत सं. 567 हिजरी में सुल्तान सलाहुद्दीन के हाथों से हो गया. इसके बाद हसन बिन सब्बाह वाला इस्माइली नजारी राज्य, जो किला अल्मुत में था, बना रहा. हिजरी सन् 486 यानी ईस्वी सं 1091 में उसका आरंभ हुआ था और हिजरी सन 654 यानी इस्वी सं 1256 में वह हलाकू की तलवार से नष्ट हुआ. इस धार्मिक उठा-पटक को इन घटनाओं की पृष्ठभूमि में समझ सकते हैं कि सिंध के इस्माईली दल पर उसके मूल केंद्र के नाश होने का क्या प्रभाव पड़ा होगा, इसलिए बहुत संभव है कि ये सोमरी लोग उनमें से कुछ लोग सैयद जलाल बुखारी के हाथ से सुन्नी हो गए हो.

 सोमरा की जातीयता:
                  सुमरा लोगों की जातीयता को लेकर तीन मत प्रचलित है: पहला वे अरब के थे, दूसरा वे सिंध के आदि निवासी थे और तीसरा वे राजपूत थे। इन पर विचार करने से पहले सोमरा ( सुमरा ) लोगों की जातीयता के प्रश्न का निपटारा करने के लिए हमें सबसे पहले पुराने इतिहास लेखकों के वर्णन देखने चाहिए। इब्नबतूता का सबसे पहला वर्णन ऊपर आ चुका हैं कि ये लोग कहते थे कि हमारे पूर्वज उस समय सिंध में आकर बसे थे, जिस समय हज्जाज बिन यूसुफ ने सिंध जीता था।
                 इसके बाद तारीख मासूमी के लेखक मीर मोहम्मद मासूम का वर्णन मिलता है, वह अपने इतिहास के दूसरे प्रकरण में लिखता है:
                  “ सुल्तान महमूद ने मुल्तान और सिंध जीत लिया। सुल्तान महमूद के लड़के अब्दुल रशीद के समय (हिजरी  सन 444 ) में, जब उसके परमसुख और विलासपूर्वक रहने के कारण उसका राज्य दुर्बल हो गया, तब उन लोगों ने अपने कंधे पर से गजनवियों का जुआ उतार दिया और सोमरा के कबीले ने थरी (थळी, वर्तमान पाकिस्तान के बदिन जिले में) नाम के स्थान पर इकट्ठे होकर ‘सोमरा’ नाम के एक आदमी को सिंहासन पर बैठाया। वहीं आसपास में सैयद नाम का एक बड़ा और मजबूत जमींदार था। सोमरा ने उसके साथ संबंध करके उसकी लड़की के साथ अपना ब्याह कर लिया। उस से एक लड़का हुआ, जिसका नाम भौंगर रखा। पिता के मरने के बाद वही बादशाह हुआ.” ( तारीख मासूमी; इलियट, पहला खंड,पृष्ठ 215 ) सुमरा के दूसरे वंशधर ने अपनी सत्ता को मुल्तान और ऊच तक बढ़ा दिया था। ईसा की 10वीं 11वीं शताब्दी के आते आते इनका आधिपत्य काठियावाड़ और कछ तक हो गया था। अलाउद्दीन खिलजी के समय भी ये उमरकोट के शासक थे।
                  इससे आगे अमीर मासूम ने उसके लड़कों-पोतो आदि के वर्णन दिए है.,  जिनमें से कुछ के नाम अरबी है जैसे खफीफ और उमर आदि तो कुछ के नाम भारतीय हैं जैसे दुदा आदि….
                 तारीख ताहिरी के लेखक ने अधिकतर कहानियां आदि लिखी है, जिसका आरंभ उसने उमर ‘सोमरा’ और एक हिंदू महिला के प्रेम से किया है. इसी प्रकरण में वह कहता है यह कबीला हिंदू था और हिंदू धर्म को मानता था. इसने हिजरी सन् 700 हिजरी से 846 हिजरी तक राज्य किया. अलोर के पास उनका स्थान था और उनकी राजधानी का नाम मुहम्मद तूर था. ( तारीख मासूमी, इलियट, पहला खंड, पृष्ठ-215, तारिख ताहिरी; इलियट; पहला खंड पृष्ठ 260 और 484 ) 
                  बेगलार नामा में केवल इतना लिखा है कि जब सिंध को मुसलमानों ने जीत लिया, तब अरब के तमीम नाम के कबीले ने वहां राज्य किया. थोड़े दिनों बाद सोमरा लोगों ने उस पर अधिकार कर लिया और 500 वर्ष तक उनका अधिकार बना रहा उनकी राजधानी का नाम महातम तूर  था.
                   यह एक बहुत ही विलक्षण बात है कि जिस प्रकार इन के राजाओं के नाम अरबी और भारतीय दोनों मिले हुए हैं, उसी प्रकार उनकी राजधानी का नाम भी कभी मुहम्मद तूर और कभी महातम तूर है। इसमें जो  महातम (महात्मा या महान, बड़ा ) शब्द है वह मोहम्मद का भी पाठांतर है.  संभव है कि ऐसा ही हो, यह स्थान देरग के परगने की जगह था, जो जौ-परकर और दंगा बाजार के बीच में है।
                  तोहफतुल किराम के लेखक ने मुंतखबुत्तवारीख से ( बदायूँनी की नहीं ) से, जो मोहम्मद यूसुफ की लिखी हुई है, उस में यह विवरण दिया है:
                     “जब सुल्तान महमूद के लड़के सुल्तान अब्दुल रशीद का राज्य हुआ, तब सिंध के लोगों ने देखा कि वह दुर्बल है. हिजरी सन् 439 यानी इस्वी सं 1053 में सोमरा नामक कबीले के लोगों ने थरी में इकट्ठे होकर ‘सोमरा’ नाम के एक आदमी को बादशाह बनाया. उसे साद नाम के एक जमींदार की लड़की के गर्भ से भंगर नाम का लड़का हुआ. 5 वर्ष राज्य करने के बाद सन् 461 हिजरी में उसकी मृत्यु हुई. (तोहफतुल किराम; इलियट; पहला खंड, पृष्ठ 344 ) स्वयं तोहफतुल किराम का लेखक लिखता है कि सोमरा जाति सामरा के अरबों से निकली है, जो सिंध में हिजरी दूसरी शताब्दी में तमीम नाम के कबीले के साथ आई थी. तमीम लोग अब्बासी के समय में सिंध के शासक या गवर्नर नियुक्त हुए थे. वह आगे लिखता  है:  “ सिंध में दल्लूराय राजा था, उसने अपने भाई, जिसका नाम छोटा इमरान था, उस पर अत्याचार किया. वह बगदाद के खलीफा के पास गया. खलीफा ने सामरा के साथ 100 अरब और एक कर दिए. सैयद आ कर सिंध में रहने लग गया और दल्लूराय ने अपनी लड़की उससे ब्याह दी.” ( तोहफतुल किराम; इलियट; पहला खंड, पृष्ठ 343 )
                   तारीख ताहिरी के लेखक ने दल्लू राय और छोटा इमरान इन दोनों भाइयों के बीच में विरोध होने का एक कारण यह लिखा है कि छोटे भाई का बचपन से ही इस्लाम की ओर अनुराग था. उसने कुरान पढ़ा था और वह हृदय से मुसलमान हो गया था. वह छिप कर हज करने के लिए चला. रास्ते में उसने एक विलक्षण रीति से फातिमा नाम की एक लड़की से विवाह किया. जब वहां से लौटकर सिंध के स्थान सेविस्तान नामक स्थान में पहुंचा, तब वह मर गया वहीं पर गाडा गया. उसकी कब्र पर अभी बहुत से लोग इकट्ठे होते हैं.( तारीखे ताहिरी; इलियट; पहला खंड पृष्ठ 258 )
     
ये लोग अरबी और भारतीय मिले हुए थे:
                 इन सभी उद्धरणों से यही पता चलता है कि इनमें  एक ओर रक्त-मिश्रण तो दूसरी ओर धर्म-सम्मिश्रण हुआ. इसमें अरबी और भारतीय दोनों जातियां मिली हुई थी. जिन लोगों ने इसे अरब बतलाया है,वे इसके एक अंग का उल्लेख करते हैं और जो इसे हिंदू बतलाते हैं, वे इस के दूसरे अंग का उल्लेख करते हैं. जैसा कि दूरुज के पत्र से पता चलता है कि सोमर नाम का फारसी के इतिहास में उल्लेख है.सोमर ने ही इस राज्य की स्थापना की थी. इसलिए उन लोगों को सोमरी और सामरा या सूमरा या सुमडा आदि कहने लगे. ईरान ( फ़ारस ) के सामरा नगर से उनका कोई संबंध नहीं है. ईरान के सामर्रा नगर का असली नाम सुर्र-मन-रआ रहा था,  जिसे अधिक व्यवहार के कारण साधारण लोग सामरा कहने लगे. यह नगर खलीफा मोहसिन बिल्ला अब्बासी ने हिजरी सन 227 में बसाया था

 शुद्ध राजपूत नहीं थे
                     यूरोपियन इतिहास लेखकों ने लिखा है कि यह कबीला पहले राजपूत था और फिर मुसलमान हो गया था. एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में सिंध पर जो लेख है, उसके लेखक ने भी यही लिखा है. ( ग्यारहवां संस्करण;25 वां खंड; पृष्ठ 143 ) इलियट साहब भी यही बात सिद्ध करना चाहते हैं. पर इनमें से कोई भी महाशय किसी प्रकार का तर्क या प्रमाण नहीं देते है. फारसी इतिहास लेखकों  के कुछ मिले-जुले वर्णनों से तो यही जान पड़ता है कि वह शुद्ध भारतीय (हिन्दू ) भी नहीं थे तो फिर भला शुद्ध राजपूत कैसे रहे होंगे? उन्हें राजपुत मानने का मत कर्नल टॉड के बाद प्रचलित हुआ और नया है. पुराने किसी भी साक्ष्य से मेल नहीं खाता है.

 यहूदी भी नहीं थे:
                  मौलवी अब्दुल रहीम साहब शरर ने एक विलक्षण बात यह लिखी है कि यह लोग यहूदी थे और मुसलमान हो गए थे. मौलवी साहब को शायद इसलिए यह संदेह हुआ कि यहूदियों की एक जाति का नाम सामरी था, जिसका यह नाम शमरून पर्वत के नाम पर पड़ा था. इस संदेह का दूसरा कारण बुशारी मुकद्दसी का एक लेख है, जिसे  मौलवी साहब ने एक विलक्षण ढंग से अपने विचार के अनुसार बना दिया. बात यह है कि बुशारी ने अपने मुकदमा या भूमिका में जिन जातियों आदि का उल्लेख किया है, उनमें चार की संख्या की विशेषता रखी है और कहा है कि “अहले जिम्मा ( मुसलमानों से भिन्न या गैर मुस्लिम लोग जिन से जजिया लिया जा सकता है ) वे चार है- यहूद, नसारा,(ईसाई ),मजूस ( अग्नि-पूजक ) और साबी”. फिर आपत्ति की है कि सामरा भी तो अहले जिम्मा है, जिनसे  जजिया लिया जा सकता है.  इस प्रकार चार की जगह 5 जातियां हो जाती है. इसका उत्तर यह दिया है कि सामरा असल में यहूद का ही एक भेद है. वे भी हजरत मूसा को ही पैगम्बर मानते है. यह तो मूल प्रति में लिखा हुआ है, इस पर संपादक ने पाद-टिप्पणी में एक और प्रति का भी लेख दे दिया है. जिस में आपत्ति का उत्तर इस प्रकार है: “ सिंध के मूर्तिपूजक भी तो इस्लामी देश में रहते है. फिर अहले जिम्मा  4 से अधिक हो जाते हैं.”  इसके उत्तर में बुशारी कहता है- “सिंध के मूर्तिपूजक अहले जिम्मा नहीं है क्योंकि वे जजिया नहीं देते.” ( अह्सनुक्तकासीम; बुशारी; पृष्ठ  42, लीडन )   इसलिए अंत में पहले जिम्मा वही 4 रह गए.
                मौलवी साहब ने सामरा और सिंध को ऊपर नीचे देख कर दोनों को एक में मिला दिया है और एक नया सिद्धांत बना लिया. जिसकी कोई जड़ नहीं है. बुशारी की अह्सनुक्तकासीमकी  नामक पुस्तक मिलती है, जिसे देख कर सब लोग जान सकते हैं कि असल में क्या है.
                 तोहफतुल किराम में सोमरा वंश के कम से कम 30 राजाओं का वर्णन है, जिनका राजत्व-काल 361 वर्ष बैठता है. कुछ अन्य पुस्तकों में कालावधि व राज्य-विस्तार के बारे में मामूली अंतर है.
       
                  सूमरा लोगों की उत्पत्ति और जातीयता पर सूमरा किंगडम का लेखक लिखता है: “The soomras originally were local Hindu tribe. Some influencial members of it had accepted Islam soon after the Arab conquest of Sindh. Even after conversion they retained their old Hindu names and customs. They had intermarried with local Arab landowners and thus acquired great influence and power.”
                 “They were not Qarmatis. Muqtana of Syria had been inviting shaikh Ibn Soomar Raja Bal of Multan to accept Druzism. It is, therefore, apparent that they belong to Ismaili sect organised by the Fatmid Khalifas of Egypt, Imam Zahir and Mustansir. The qarmati descendent ……..somehow most of early Sunni writers considered Ismailis as Qarmatis. Soomras practiced a lot of Hindu customs even until 1471 AD when Mahmud Begra tried to suppress them to his sect of Islam i.e., Sunnism.”
                  “..... The Soomras in general had local Sindhi names and therefore  they could not have originally belong to this sect of Ismailis.”
                  “The Nizari school, was active in the northern subcontinent. Pir Shams Sabzwari, looking like a jogi, came to multan where he drew considerable followings. He may have been active in Sindh, but as he come during the time of Imam Qasim Shah (1310-1369 AD) in the last days of Soomra rule, it became doubtful if they could be Nizari Ismailis too. Pir Sadruddin, who died near Uch in 876 AH (1471 AD ), was also a Nizari missionary and there is evidence that he exercised influence in Sindh. Nizaris got set back in Iraq when Halaku’s forces in mid-thirteenth century destroyed their stronghold in Alburz mountain.”
                   “Mir Masum basing on hearsay considers the Soomras of Hindu origin. Tarikh-i-Tahiri clearly mentions that Soomras were of Hindu origin, but all the same they ate buffalo meat. Muntakhab-ut-Tawarikh of Muhammad Yousuf agrees with Masumi and gives some additional names of their rulers of whom some appears to be Muslim names. Tarikh-i-Tabaqati-i-Bahadur-Shahi, written around 1532-1536 AD, states that they were descendents of Tamim Ansari. This is also a mis-statement. Recently it is argued that they were Sumerians, who came from Iraq and were of Arab stock. This is twentieth-century theory unknown to the past.historians. Presence of Soomras in small numbers does not make them Rajputs either, as Soomra and Samma clans had formed ninety per cent of population of Sindh from eleventh to sixteenth century.”
                 “Tuhfa-tul-Karim and Beglar Namah have called Soomras as Arabs and perhaps connected them with Sumerians of Iraq without realising that Sumerians were not Semites. After the conquest of India by Mughals, the definition of a mughal was: a foreigner from the central Asia or Iran, fair in color, not knowing local language and not having a local wife. All local Muslims were discriminated against and exploited like non-muslims. Many Sindhi tribes started showing their origin from outside. Soomras became Sumerians, Sammas descendents of Jamshed of Persia and Kalhoras as offsprings of Abbasid Khalifas, in a similar way as earlier Rais of Rai dynasty the local Sudras or Untouchables, had became Rajputs.” “............All warriers and feudals called themselves Rajputs all over South Asia. Sammas and Soomras were local tribes and assigned theselves as Rajputs by class because of presence of a few of their tribesmenin the adjourning desert of Rajasthan. Later on the Rajputs of Rajasthan built their own geneologies, descent,folklore and history, which was collected by Todd between 1815-1829 AD.  This is not history but only narration of mostly fictitious perceptions.”  (An Illustrated Historical Atlas of Soomra Kingdom of Sindh. By M.H.Panhwar, from introduction pages.)                                 

सूमरो ( सोमरियों ) का अंत
                       मुहम्मद शाह तुगलक के समय में दिल्ली के सुल्तान और सूमरों में आपस में कुछ खींचातानी और लड़ाई होने लगी थी. मुहम्मद शाह तुगलक के अंतिम समय में गुजरात में तगी नाम का एक मुगल विद्रोही हो गया था. जब बादशाह गुजरात पहुंचा, तब वह मुगल भागकर ठट्टा ( सिंध ) चला गया और वहां उसनेसूमरों के यहां शरण ली. बादशाह उसका पीछा करता हुआ ठट्टे तक गया. वहां मुगलों और सूमरों ने मिलकर बादशाह का सामना किया. वही अचानक बादशाह की तबीयत खराब हो गई और वह मर गया. बिना बादशाह के सेना को मुगलों और सूमरो के हाथों बहुत कष्ट उठाना पड़ा. अंत में उन्होंने फिरोजशाह तुगलक को अपना बादशाह बना कर इस कठिनाई से छुटकारा पाया और वह सेना दिल्ली लौट आई.  यह बात हिजरी सन 752 की है.
                    पर इसके कुछ ही वर्षों बाद जब फिरोजशाह सन् 762 हिजरी में यहां आया, तब उसने देखा कि यहां जामों का राज्य है. जाम ओनर और उसका भतीजा और भांजा शासक हुआ. यह जाम उपाधि समा के बादशाह की थी. इससे जान पड़ता है कि उसी समय सोमरा लोगों का अंत और सम्मा लोगों का आरंभ हुआ. तोहफतुल  किराम में सन् 752 हिजरी में समा लोगों का आरंभ लिखा है.  इससे जान पड़ता है कि इसी मोहम्मद शाह तुगलक की चढ़ाई के बाद ही यह क्रांति हुई थी. फरिश्ता के कथन के अनुसार इस क्रांति के लिए मुसलमानों ने सबसे अधिक प्रयत्न किया था.  जान पड़ता है कि इस्माइलियों या हिंदू से जान पड़ने वाले सोमारियों के विद्रोह के बाद साधारण मुसलमानों ने यही उचित समझा कि सूमरों को यही कि एक नई मुसलमान बनी हुई देशी जाति के द्वारा मिटा दिया जाए.  इसलिए सम्मा जाति के ओनर नाम के एक सरदार ने सोमारियों के अंतिम बादशाह हमीर ( अमीर ) को, जिसका दूसरा नाम अरमाईल भी मिलता है, उसको मार कर अपना राज्य स्थापित कर लिया.

 नई शोध की  आवश्यकता है:
                    इस बात की आवश्यकता है कि सूमरा (सोमर) बादशाहों के शासन काल की फिर से अच्छी तरह से जाँच हो और उनकी जातीयता की गुत्थी को सुलझाया जाये. इस हेतु हमारे इतिहासकारों को कुछ परिश्रम करना चाहिए. यह भी कहा जाता है कि हिजरी सन 620 के लगभग सुल्तान जलालुद्दीन ख्वारिज्म शाह तातारियों से भागकर सिंध में आया और ठट्टा पहुंचा, तब जलसी नाम के सोमरी बादशाह ने भागकर और नावों में अपना सामान लादकर किसी टापू में शरण ली. ( फ़रिश्ता; नवल किशोर; दूसरा खंड; पृष्ठ 316 )  इस जलसी को सूमरो के चैंसर बादशाह से समीकृत किया जाता है, जो अरबी किताबो में सूमरा बादशाहों में 14 वें स्थान पर है.
      इसी प्रकार से हिजरी सन 734 में जब इब्न-बतूता सिंध में आया था, उस समय वहां का बादशाह ओनर था. इसका नाम भी अरबी सूचि में नहीं है. संभव है कि अरबी सूचि में जो 18 वें स्थान पर उमर है, वही ओनर हो. सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि यह सुस्पष्ट है कि “सूमरा” सिंध की एक स्थानीय और आदिनिवासी जाति थी. जिस समय अर्थात दाहिर के बाद जब इन्होने सिंध की सत्ता पर कब्जा किया, तब तक वहां पर बौद्ध-धर्म का ही बोल-बाला था. बौद्ध-धर्म के अवसान के काल में और मुस्लिम प्रभाव में भी इन्होने अपनी बौद्ध परम्पराओं को नहीं छोड़ा. इसलिए उन्हें हिन्दू कहा जाता रहा. सं 1829 में टॉड ने उन्हें पहली बार हिन्दू राजपुत लिखा और उसी आधार पर इलियट ( 1853), हैग (1894 ), मिर्जा कालीच बेग ( 1901 ) आदि ने हिन्दू राजपुत लिखकर गाथाएं लिखी. जबकि सभी साक्ष्यों से यह तथ्य उभरता है कि मेघ जाति से ही सत्ता प्राप्ति के बाद में मुसलमानों से अलग होने के कारन हिन्दू कहे गए  और जब हिन्दू कहे गए तो बाद में सत्तासीन लोग अपने को हिन्दू राजपुत कहने लग गए. लेकिन यह विचारणीय तथ्य है कि राजपूतों में यह नाम मात्र ही है और मेघवालों में निचले सिंध से लगे पश्चिमी राजस्थान में सभी सूमरा अभी भी मेघ ही है. पहले मुसलमान और इन मेघवालों के वस्त्राभूषणों में भी कोई फर्क नहीं था. वे सूमरा जो मुसलमान नहीं बने आज भी मेघवालों की एक खांप के रूप में वर्तमान है.
 *(इस पर की गई पहले वाली पोस्ट के क्रम में इसे समझे)
See also:
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=226788980850755&id=100005589644473
साभार @Tararam Goutam

टिप्पणियाँ

  1. सत्य है वही लिखो जो जुठ है वो जुठ रहेगा मुसलमानों ने मेघवाल कोली निचली जाती वालो मुस्लिम नही बनाया कही भी एक व्यक्ति लाके दिखाओ की मुस्लिम है उमरा सुमरा परमार राजपूत थे उन्हें मोहमंद गोरी ने मुस्लिम बनाया था

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