मेघवाल जाति की खांप, धांधू या धांधल, मंसुरिया मसूरिया
धांधू या धांधल:
'धांधू' मेघवाल कौम की एक खांप है। इस खांप की उत्पत्ति तेरहवीं-चौहदवीं शताब्दी के दौरान हुई प्रतीत होती है। उस समय की शब्दावली में धांधू शब्द का अर्थ सैनिक या सिपाही होता है। इस खांप के मेघवाल अपनी खांप की उत्पत्ति 'धांधू' नाम के पुरुष से हुई बताते है, जिसे कहीं कहीं धांधलीमल या धांधल मल भी कहा जाता है।जो धांधूसर प्रदेश का राजा था। यह प्रदेश सिंध के गुजरात इलाके में बताया जाता है। इसका संधान यही है कि धांधू खांप की उत्पत्ति सिंध प्रदेश से ही हुई है।
धांधू वीर-पराक्रमी, परोपकारी और दयालु राजा था। मुसलमानों के आक्रमण के समय उसको राज्य विहीन होना पड़ा और उसके वंशधर अन्य सामंतों या राव-राजाओं के वहां सैनिक के रूप में जीवन बिताने लगे। अधिकतर लोगों की यही आजीविका रही, इसलिए उनकी अलग खांप बन गयी और वे सैनिकवृति के कारण भी धांधू कहे जाने लगे। इन दोनों घटनाओं में धांधू का अर्थ एक ही होता है। ये लोग मूलतः सिंध से गुजरात और गुजरात से विभिन्न राजाओं के सैनिक के रूप में मारवाड़ में बसते रहे।
गुजरात का धांधूसर ग्राम 'धांधू' का बसाया हुआ कहा जाता है। कुछ लोग धांधूसर की धंधुमार असुर से उत्पत्ति बताते है। जो भी हो, मेघवालों की कथाओं में धांधू खांप का मूल पुरुष धांधू नाम का मेघ ही कहा गया है, जिसने धांधूसर बसाया था। अतः धांधूसर बसाने वाला धांधू ही इस खांप का मूल पुरुष ठहरता है अन्य कोई नहीं। पुराततत्व खोजों में जूनागढ़ और वनस्थली के बीच में उसका खुदाया हुआ तालाब व अन्य सामग्री मिलती है, उस स्थान को प्राचीन काल में धांधूसर कहा जाता था। ये तथ्य धांधू खांप के मेघवालों की कथा-किंवदंतियों को पुष्ट करते है।
उसी इलाके में रानी हाणी की बाव यानी बावड़ी भी मिलती है। यह कहा जाता है कि यह वनस्थली के राजा की पुत्री थी और इसने ही यह वाव (बावड़ी) खुदाई थी। इस प्रसंग से धांधू व हाणी को राजपूत मान कर इतिहास में वर्णित किया जाता है, क्योंकि वह वहां के राजा को ब्याही गयी थी, परंतु मेघवालों की कथाओं और मान्यताओं में रानी 'हाणी', जिसने हाणी वाव खुदाया वह मेघ औरत थी। संवत 1389 (ईसवी सन 1445) तिथि का एक शिलालेख हाणी वाव पर मिलता है, जिससे इस वाव की खुदाई की पुष्टि होती है और मेघवालों की कथाओं से उनकी अलग खांप बनने की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पुष्टि होती है। बावड़ी पर खुदी उसकी मूर्ति को वहां के मेघवाल लोग अपनी देवी के रूप में पूजा करते आये है और अन्य लोग भी बांजड़ी गाय-भैस के लिए व दूध के लिए उसको दूध चढ़ा कर पूजते रहे है।
धांधल खांप राठौड़ और पंवार जाति के राजपूतों में भी पाई जाती है, परंतु मेघों की धांधू खांप का इनकी खांप से नाम की समानता के अलावा कोई अन्य संबंध नहीं है।
Mansuriya/मंसुरिया वा मसूरिया
मेघ जाति की एक खांप: मेघवाल जाति की एक खांप 'मंसुरिया' मारवाड़ के जोधपुर डिवीजन में निवास करती है। जैसा कि मेघवाल जाति के उत्पत्ति स्थान के बारे में अन्यत्र स्पष्ट किया गया था कि 'मेघ' जाति मूलतः सिन्धु-क्षेत्र में निवास करने वाली आदि-निवासी जाति थी, और सिकंदर के समय यह जाति 'सतलज' के मुहानों पर निवास करती थी। वैदिक आर्यों के सिंधु-प्रदेश में आव्रजन के समय की इस जाति की कम से कम 30 खाँपों के नाम ऋग्वेद में मिलते है। बाकी खांपे बाद में या तो किसी स्थान-विशेष के कारण या किसी विशेष अवदान या गुण या किसी अन्य कारण से आविर्भूत हुई। मंसुरिया खांप भी उन में से एक है।
खांप की उत्पत्ति: कुछ लोगों का अनुमान है कि मंसुरिया खांप किसी ब्राह्मण या पुरोहित के नाम से बनी है। उनके अनुमान का आधार उन जातियों में 'मंसुरिया' गोत्र का विद्यमान होना है और इस आधार पर वे यह अनुमानित करते है कि उनकी खांप का मूल-पुरुष पुरोहित जाति से अलग होकर मेघ जाति में मिल गया होगा और तब से वे मेघवाल कहलाने लगे। यह एक निर्मूल कल्पना मात्र है, जो सिंध की प्राचीन एथनॉलॉजी से मेल नहीं खाती है। सिंध की प्राचीन एथनॉग्राफी में मंसुरा नाम एक विशेष जगह (नगर) के लिए प्रयुक्त हुआ है और वहां निवास करने वाले लोगों को मंसुरिया कहा गया है। ऐतिहासिक रूप से यह बात सिद्ध हो जाने पर यह स्पष्ट होता है कि वर्तमान मारवाड़ में निवास करने वाली मंसुरिया खांप मूलतः सिंध के मंसुरा क्षेत्र/नगर में निवास करने के कारण 'मंसुरिया' कहलाई गयी। यह नाम किसी मूल-पुरुष का वाचक नहीं है, बल्कि जगह या देश का नाम विशेष है। अस्तु इस खांप का नाम राष्ट्र(nation) से उद्भूत हुआ है न कि किसी व्यक्ति विशेष से।
मंसुरिया नाम कब और क्यों? अब यह प्रश्न कि जिस भूभाग में ये रहते थे, उस क्षेत्र का यह नाम क्यों पड़ा और वहां के लोग अपना मूल-निवास छोड़कर अन्यत्र क्यों निवासित हुए? इसके लिए हमें पुनः सिंध के इतिहास की पड़ताल करनी पड़ेगी। यह कहा जाता है कि प्राचीन काल में मंसुरा सिंध का एक प्रसिद्द बंदरगाह था और किसी समय सिंध की राजधानी भी था। जो कालक्रम में तबाह हो गया और वहां के लोग विस्थापित हो गए।
मंसूरा की स्थिति: मंसुरा नगर की स्थिति सिंध के सबसे प्राचीन नगर बहमनावाद के पास स्थिर की जाती है, लेकिन बहमनावाद के प्राचीन स्रोतों में इसका उल्लेख नहीं मिलता है, क्योंकि इस नगर की स्थापना अरब आक्रमण-कर्ता मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के बाद में हुई थी। उसके बाद मंसूरा का जिक्र मिलता है। कासिम ने सिंध और मुल्तान को जीत लिया था। सिंध अरबों का उपनिवेश बन कर रह गया। उस समय कईं नये नगर भी बसाए गए। मंसूरा उन में से एक है अर्थात मुहम्मद बिन कासिम के बाद ही यह नगर बसा और इसकी प्रसिद्धि एक बंदरगाह के रूप में ख्यात होने लगी। स्पष्टतः मंसुरिया खांप भी उसके बाद ही अस्तित्व में आयी। बहमनावाद के 'बरामक' लोगों का जिक्र प्रायः अरब, सिंध आदि के इतिहास में महत्वपूर्ण ढंग से होता रहा है। बहमनावाद का ह्रास होने के बाद मंसूरा शहर की ख्याति बढ़ने लगी। यह एक नया नगर और नया बंदरगाह था और उसकी ख्याति इसप्रकार से बढ़ी जैसी कि अंग्रेजों के समय बॉम्बे आदि की ख्याति बढ़ी। मंसूरा सिंध की राजधानी भी रहा।
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि मुहम्मद बिन कासिम ने 8वीं शताब्दी में सिंध पर आक्रमण किया था और सिंध अरबों के अधीन हो गया था। उस समय सिंध में मुसलमान धर्म का शीघ्र प्रचार-प्रसार होने लगा। बहमनावाद के बौद्ध बरामक अधिकांशतः मुस्लिम बन गए थे और उनका बड़ा मंदिर दुर्गति को प्राप्त हुआ। उस समय सिंध दमिश्क और बगदाद का एक प्रान्त बनकर रह गया। बाद में अरबों ने फिर स्वतंत्र होने की कोशिश की। नौंवी शताब्दी तक सिंध में कईं स्वतंत्र हिन्दू और मुस्लिम राज्य अस्तित्व में आ चुके थे।
उस काल में अरबों ने जो नगर बसाये उनमें महफूजा, वैजा और मंसूरा प्रसिद्ध है। उमैया वंश के अंतिम शासक के समय अरब वालों का बल घट गया था और सिंध वाले उन्हें पीछे धकेलने में कामयाब हुए। तब हकम बिन अवाना कलबी ने नदी के उस पार 'महफूजा' नगर बसाया। कासिम के बेटे अभ्र ने बहमनाबाद के पास 'मंसूरा' नगर बसाया। महफूजा और मंसूरा दोनों का अर्थ होता है सुरक्षा देने वाला अर्थात ये सुरक्षित जगह या नगर के रूप में अस्तित्व में आये। अब्बासियों के समय मोतसिम बिल्लाह के शासनकाल में इब्राहिम बिन मूसा बिन याहिया बिन खालिद ने सिंध के वाली नियत होने से बैजा नगर को बसाया। इन सब में मंसूरा ही सर्वाधिक प्रसिद्ध हुआ और वह ही स्थायी हुआ।
इब्न हौकल और इस्तखरी ने लिखा है (याकूब कृत मुअजुमल बुल्दान में मंसूरा शब्द) कि ' यह मेहरान (सिंध) नदी के किनारे ऐसी जगह बसाया गया है कि नदी की एक शाखा ने निकलकर इसे टापू की तरह बना दिया है।' स्पष्ट यह है कि नदी के घूमने से बीच की जगह टापू की तरह बन गयी और वह चारों ओर से पानी से घिरी होने से सुरक्षित हो गयी अर्थात अचानक कोई इस पर चढ़ाई नहीं कर सकता था। मैसूर में कावेरी नदी पर बसा 'सेरिंगापटम' और मद्रास के 'त्रिचनापल्ली' आदि ऐसे ही टापू है। पुराने समय में युद्ध कला के लिए ऐसे टापू सुरक्षित होते थे। अब्दुलफजल ने आईने अकबरी में सिंध के प्रसिद्ध नगर मक्कर को मंसूरा से समीकृत किया है। मंसूरा कुरैसी अरब रियासत की राजधानी भी रहा। नदियों से घिरा होने के कारण यह बहुत बड़े व्यापारिक केंद्र के रूप में भी उभरा और बंदरगाह के रूप में भी प्रसिध्द हुआ।
इससे यह स्पष्ट है कि मंसुरिया खांप 8वीं शताब्दी तक अस्तित्व में ही नहीं थी तो उस समय उसके प्रव्रजन का प्रश्न ही नहीं पैदा होता है। मंसूरा की प्रसिद्धि होने पर वहां के निवासी मंसुरिया के नाम से पुकारे जाने लगे। यह नाम किसी भी प्रकार से जातीय नाम नहीं था, बल्कि एक भौगोलिक नाम था, जो वहां के निवासियों के लिए प्रयुक्त होता था।
गजनवी और मंसूरा: महमूद गजनवी ने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए चारों और आक्रमण किये, परंतु उस समय भी सिंध के दो राज्य उसके प्रभाव से बचे हुए थे: एक मुल्तान और दूसरा मंसूरा। इससे यह प्रमाणित होता है कि उस समय तक मंसूरा और वहां के निवासी अस्तित्व में आ चुके थे और ख्यात-नाम हो चुके थे। महमूद गजनी के समय से मंसुरिया लोगों का विस्थापन होना, हो सकता है। यह लगभग 11वीं-12वीं शताब्दी का समय है।
संघर्ष और विस्थापन: इमरान बरमकी के समय वहां दो कबीलों में जबरदस्त लड़ाईयां होने लगी। एक कबीला यमनी (कहतानी) और दूसरा हिजाजी (नजारी) था। इस समय लोगों का बड़े स्तर पर प्रव्रजन हुआ। मारवाड़ में निजारी पंथ, जिसके रामदेव अनुयायी थी, उसी का पुच्छल है। मसऊदी के समय यह राज्य प्रगति पर था। देवल, जंदरीज, कडाल, बानिया सदौसन, अलौर, सौबरा और सौमुद आदि नगर उसके अधीन थे। मसूदी ने मंसूरा राज्य में गांव और बस्तियों की संख्या तीन लाख बतायी है।
मसऊदी लिखता है कि उस समय 'मंसूरा वालों की सिंध की एक जाति मेदि (मेघ) से बराबर लड़ाईयां होती रहती थी।' बुशारी के समय अर्थात हिजरी संवत 375 में यह राज्य अस्तित्व में था। इसके 15 वर्ष बाद मुहमद गजनवी के आक्रमण शुरू होते है। यह भी कहा जाता है कि सोमनाथ मंदिर को लूटने के बाद गजनी मंसूरा भी गया था। वहां का वाली विधर्मी हो गया था या कि करमती (इस्माईलिया) हो गया था। मुहमद गजनवी के समय भी बड़े स्तर पर विस्थापन की संभावना है।
ईसा की 16वीं शताब्दी में वहाँ फिर सोमरी और सम्मा कबीलों के बीच लड़ाईयां हुई। उस समय भी लोग विस्थापित हुए। बाद में और भी---! इसप्रकार से 15वीं शताब्दी के आते-आते मंसुरिया वहां से विस्थापित होने लग गए। शहर भी नदी के चपेट में आता रहा। इधर मुसलमान धर्म का प्रसार और करमती व निजारी लोगों का आपसी झगड़ा भी विस्थापन का कारण था। मल्लीनाथ के समय के धारु और उगमसी के पंथ की जड़े भी उसी से निकली है। बाबा रामदेव जी ने जिसे आगे किया।
कुल मिलाकर मंसुरिया खांप के बारे में यह निष्कर्ष है कि यह मंसूरा स्थान से बनी हुई जाति है और वहां से नाम अंगीकार कर विस्थापित होकर जगह-जगह घूमती हुई वर्तमान मारवाड़ में आ बसी। अगर कोई कितना ही पहले आया भी ही तो उसका भी यहां 10वीं शताब्दी के बाद ही आना सम्भव है। उसके बाद कम या ज्यादा रूप में आते रहे है और आजादी के समय तक आते रहे।
(शेष अन्य खाँपों के वर्णन में देखे, मंसुरिया गोत्र/खांप मेघवालों के अलावा कुछ अन्य जातियों में भी प्रचलित है)
सूमड़ा-----
'धांधू' मेघवाल कौम की एक खांप है। इस खांप की उत्पत्ति तेरहवीं-चौहदवीं शताब्दी के दौरान हुई प्रतीत होती है। उस समय की शब्दावली में धांधू शब्द का अर्थ सैनिक या सिपाही होता है। इस खांप के मेघवाल अपनी खांप की उत्पत्ति 'धांधू' नाम के पुरुष से हुई बताते है, जिसे कहीं कहीं धांधलीमल या धांधल मल भी कहा जाता है।जो धांधूसर प्रदेश का राजा था। यह प्रदेश सिंध के गुजरात इलाके में बताया जाता है। इसका संधान यही है कि धांधू खांप की उत्पत्ति सिंध प्रदेश से ही हुई है।
धांधू वीर-पराक्रमी, परोपकारी और दयालु राजा था। मुसलमानों के आक्रमण के समय उसको राज्य विहीन होना पड़ा और उसके वंशधर अन्य सामंतों या राव-राजाओं के वहां सैनिक के रूप में जीवन बिताने लगे। अधिकतर लोगों की यही आजीविका रही, इसलिए उनकी अलग खांप बन गयी और वे सैनिकवृति के कारण भी धांधू कहे जाने लगे। इन दोनों घटनाओं में धांधू का अर्थ एक ही होता है। ये लोग मूलतः सिंध से गुजरात और गुजरात से विभिन्न राजाओं के सैनिक के रूप में मारवाड़ में बसते रहे।
गुजरात का धांधूसर ग्राम 'धांधू' का बसाया हुआ कहा जाता है। कुछ लोग धांधूसर की धंधुमार असुर से उत्पत्ति बताते है। जो भी हो, मेघवालों की कथाओं में धांधू खांप का मूल पुरुष धांधू नाम का मेघ ही कहा गया है, जिसने धांधूसर बसाया था। अतः धांधूसर बसाने वाला धांधू ही इस खांप का मूल पुरुष ठहरता है अन्य कोई नहीं। पुराततत्व खोजों में जूनागढ़ और वनस्थली के बीच में उसका खुदाया हुआ तालाब व अन्य सामग्री मिलती है, उस स्थान को प्राचीन काल में धांधूसर कहा जाता था। ये तथ्य धांधू खांप के मेघवालों की कथा-किंवदंतियों को पुष्ट करते है।
उसी इलाके में रानी हाणी की बाव यानी बावड़ी भी मिलती है। यह कहा जाता है कि यह वनस्थली के राजा की पुत्री थी और इसने ही यह वाव (बावड़ी) खुदाई थी। इस प्रसंग से धांधू व हाणी को राजपूत मान कर इतिहास में वर्णित किया जाता है, क्योंकि वह वहां के राजा को ब्याही गयी थी, परंतु मेघवालों की कथाओं और मान्यताओं में रानी 'हाणी', जिसने हाणी वाव खुदाया वह मेघ औरत थी। संवत 1389 (ईसवी सन 1445) तिथि का एक शिलालेख हाणी वाव पर मिलता है, जिससे इस वाव की खुदाई की पुष्टि होती है और मेघवालों की कथाओं से उनकी अलग खांप बनने की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पुष्टि होती है। बावड़ी पर खुदी उसकी मूर्ति को वहां के मेघवाल लोग अपनी देवी के रूप में पूजा करते आये है और अन्य लोग भी बांजड़ी गाय-भैस के लिए व दूध के लिए उसको दूध चढ़ा कर पूजते रहे है।
धांधल खांप राठौड़ और पंवार जाति के राजपूतों में भी पाई जाती है, परंतु मेघों की धांधू खांप का इनकी खांप से नाम की समानता के अलावा कोई अन्य संबंध नहीं है।
Mansuriya/मंसुरिया वा मसूरिया
मेघ जाति की एक खांप: मेघवाल जाति की एक खांप 'मंसुरिया' मारवाड़ के जोधपुर डिवीजन में निवास करती है। जैसा कि मेघवाल जाति के उत्पत्ति स्थान के बारे में अन्यत्र स्पष्ट किया गया था कि 'मेघ' जाति मूलतः सिन्धु-क्षेत्र में निवास करने वाली आदि-निवासी जाति थी, और सिकंदर के समय यह जाति 'सतलज' के मुहानों पर निवास करती थी। वैदिक आर्यों के सिंधु-प्रदेश में आव्रजन के समय की इस जाति की कम से कम 30 खाँपों के नाम ऋग्वेद में मिलते है। बाकी खांपे बाद में या तो किसी स्थान-विशेष के कारण या किसी विशेष अवदान या गुण या किसी अन्य कारण से आविर्भूत हुई। मंसुरिया खांप भी उन में से एक है।
खांप की उत्पत्ति: कुछ लोगों का अनुमान है कि मंसुरिया खांप किसी ब्राह्मण या पुरोहित के नाम से बनी है। उनके अनुमान का आधार उन जातियों में 'मंसुरिया' गोत्र का विद्यमान होना है और इस आधार पर वे यह अनुमानित करते है कि उनकी खांप का मूल-पुरुष पुरोहित जाति से अलग होकर मेघ जाति में मिल गया होगा और तब से वे मेघवाल कहलाने लगे। यह एक निर्मूल कल्पना मात्र है, जो सिंध की प्राचीन एथनॉलॉजी से मेल नहीं खाती है। सिंध की प्राचीन एथनॉग्राफी में मंसुरा नाम एक विशेष जगह (नगर) के लिए प्रयुक्त हुआ है और वहां निवास करने वाले लोगों को मंसुरिया कहा गया है। ऐतिहासिक रूप से यह बात सिद्ध हो जाने पर यह स्पष्ट होता है कि वर्तमान मारवाड़ में निवास करने वाली मंसुरिया खांप मूलतः सिंध के मंसुरा क्षेत्र/नगर में निवास करने के कारण 'मंसुरिया' कहलाई गयी। यह नाम किसी मूल-पुरुष का वाचक नहीं है, बल्कि जगह या देश का नाम विशेष है। अस्तु इस खांप का नाम राष्ट्र(nation) से उद्भूत हुआ है न कि किसी व्यक्ति विशेष से।
मंसुरिया नाम कब और क्यों? अब यह प्रश्न कि जिस भूभाग में ये रहते थे, उस क्षेत्र का यह नाम क्यों पड़ा और वहां के लोग अपना मूल-निवास छोड़कर अन्यत्र क्यों निवासित हुए? इसके लिए हमें पुनः सिंध के इतिहास की पड़ताल करनी पड़ेगी। यह कहा जाता है कि प्राचीन काल में मंसुरा सिंध का एक प्रसिद्द बंदरगाह था और किसी समय सिंध की राजधानी भी था। जो कालक्रम में तबाह हो गया और वहां के लोग विस्थापित हो गए।
मंसूरा की स्थिति: मंसुरा नगर की स्थिति सिंध के सबसे प्राचीन नगर बहमनावाद के पास स्थिर की जाती है, लेकिन बहमनावाद के प्राचीन स्रोतों में इसका उल्लेख नहीं मिलता है, क्योंकि इस नगर की स्थापना अरब आक्रमण-कर्ता मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के बाद में हुई थी। उसके बाद मंसूरा का जिक्र मिलता है। कासिम ने सिंध और मुल्तान को जीत लिया था। सिंध अरबों का उपनिवेश बन कर रह गया। उस समय कईं नये नगर भी बसाए गए। मंसूरा उन में से एक है अर्थात मुहम्मद बिन कासिम के बाद ही यह नगर बसा और इसकी प्रसिद्धि एक बंदरगाह के रूप में ख्यात होने लगी। स्पष्टतः मंसुरिया खांप भी उसके बाद ही अस्तित्व में आयी। बहमनावाद के 'बरामक' लोगों का जिक्र प्रायः अरब, सिंध आदि के इतिहास में महत्वपूर्ण ढंग से होता रहा है। बहमनावाद का ह्रास होने के बाद मंसूरा शहर की ख्याति बढ़ने लगी। यह एक नया नगर और नया बंदरगाह था और उसकी ख्याति इसप्रकार से बढ़ी जैसी कि अंग्रेजों के समय बॉम्बे आदि की ख्याति बढ़ी। मंसूरा सिंध की राजधानी भी रहा।
यह ऐतिहासिक तथ्य है कि मुहम्मद बिन कासिम ने 8वीं शताब्दी में सिंध पर आक्रमण किया था और सिंध अरबों के अधीन हो गया था। उस समय सिंध में मुसलमान धर्म का शीघ्र प्रचार-प्रसार होने लगा। बहमनावाद के बौद्ध बरामक अधिकांशतः मुस्लिम बन गए थे और उनका बड़ा मंदिर दुर्गति को प्राप्त हुआ। उस समय सिंध दमिश्क और बगदाद का एक प्रान्त बनकर रह गया। बाद में अरबों ने फिर स्वतंत्र होने की कोशिश की। नौंवी शताब्दी तक सिंध में कईं स्वतंत्र हिन्दू और मुस्लिम राज्य अस्तित्व में आ चुके थे।
उस काल में अरबों ने जो नगर बसाये उनमें महफूजा, वैजा और मंसूरा प्रसिद्ध है। उमैया वंश के अंतिम शासक के समय अरब वालों का बल घट गया था और सिंध वाले उन्हें पीछे धकेलने में कामयाब हुए। तब हकम बिन अवाना कलबी ने नदी के उस पार 'महफूजा' नगर बसाया। कासिम के बेटे अभ्र ने बहमनाबाद के पास 'मंसूरा' नगर बसाया। महफूजा और मंसूरा दोनों का अर्थ होता है सुरक्षा देने वाला अर्थात ये सुरक्षित जगह या नगर के रूप में अस्तित्व में आये। अब्बासियों के समय मोतसिम बिल्लाह के शासनकाल में इब्राहिम बिन मूसा बिन याहिया बिन खालिद ने सिंध के वाली नियत होने से बैजा नगर को बसाया। इन सब में मंसूरा ही सर्वाधिक प्रसिद्ध हुआ और वह ही स्थायी हुआ।
इब्न हौकल और इस्तखरी ने लिखा है (याकूब कृत मुअजुमल बुल्दान में मंसूरा शब्द) कि ' यह मेहरान (सिंध) नदी के किनारे ऐसी जगह बसाया गया है कि नदी की एक शाखा ने निकलकर इसे टापू की तरह बना दिया है।' स्पष्ट यह है कि नदी के घूमने से बीच की जगह टापू की तरह बन गयी और वह चारों ओर से पानी से घिरी होने से सुरक्षित हो गयी अर्थात अचानक कोई इस पर चढ़ाई नहीं कर सकता था। मैसूर में कावेरी नदी पर बसा 'सेरिंगापटम' और मद्रास के 'त्रिचनापल्ली' आदि ऐसे ही टापू है। पुराने समय में युद्ध कला के लिए ऐसे टापू सुरक्षित होते थे। अब्दुलफजल ने आईने अकबरी में सिंध के प्रसिद्ध नगर मक्कर को मंसूरा से समीकृत किया है। मंसूरा कुरैसी अरब रियासत की राजधानी भी रहा। नदियों से घिरा होने के कारण यह बहुत बड़े व्यापारिक केंद्र के रूप में भी उभरा और बंदरगाह के रूप में भी प्रसिध्द हुआ।
इससे यह स्पष्ट है कि मंसुरिया खांप 8वीं शताब्दी तक अस्तित्व में ही नहीं थी तो उस समय उसके प्रव्रजन का प्रश्न ही नहीं पैदा होता है। मंसूरा की प्रसिद्धि होने पर वहां के निवासी मंसुरिया के नाम से पुकारे जाने लगे। यह नाम किसी भी प्रकार से जातीय नाम नहीं था, बल्कि एक भौगोलिक नाम था, जो वहां के निवासियों के लिए प्रयुक्त होता था।
गजनवी और मंसूरा: महमूद गजनवी ने अपने साम्राज्य विस्तार के लिए चारों और आक्रमण किये, परंतु उस समय भी सिंध के दो राज्य उसके प्रभाव से बचे हुए थे: एक मुल्तान और दूसरा मंसूरा। इससे यह प्रमाणित होता है कि उस समय तक मंसूरा और वहां के निवासी अस्तित्व में आ चुके थे और ख्यात-नाम हो चुके थे। महमूद गजनी के समय से मंसुरिया लोगों का विस्थापन होना, हो सकता है। यह लगभग 11वीं-12वीं शताब्दी का समय है।
संघर्ष और विस्थापन: इमरान बरमकी के समय वहां दो कबीलों में जबरदस्त लड़ाईयां होने लगी। एक कबीला यमनी (कहतानी) और दूसरा हिजाजी (नजारी) था। इस समय लोगों का बड़े स्तर पर प्रव्रजन हुआ। मारवाड़ में निजारी पंथ, जिसके रामदेव अनुयायी थी, उसी का पुच्छल है। मसऊदी के समय यह राज्य प्रगति पर था। देवल, जंदरीज, कडाल, बानिया सदौसन, अलौर, सौबरा और सौमुद आदि नगर उसके अधीन थे। मसूदी ने मंसूरा राज्य में गांव और बस्तियों की संख्या तीन लाख बतायी है।
मसऊदी लिखता है कि उस समय 'मंसूरा वालों की सिंध की एक जाति मेदि (मेघ) से बराबर लड़ाईयां होती रहती थी।' बुशारी के समय अर्थात हिजरी संवत 375 में यह राज्य अस्तित्व में था। इसके 15 वर्ष बाद मुहमद गजनवी के आक्रमण शुरू होते है। यह भी कहा जाता है कि सोमनाथ मंदिर को लूटने के बाद गजनी मंसूरा भी गया था। वहां का वाली विधर्मी हो गया था या कि करमती (इस्माईलिया) हो गया था। मुहमद गजनवी के समय भी बड़े स्तर पर विस्थापन की संभावना है।
ईसा की 16वीं शताब्दी में वहाँ फिर सोमरी और सम्मा कबीलों के बीच लड़ाईयां हुई। उस समय भी लोग विस्थापित हुए। बाद में और भी---! इसप्रकार से 15वीं शताब्दी के आते-आते मंसुरिया वहां से विस्थापित होने लग गए। शहर भी नदी के चपेट में आता रहा। इधर मुसलमान धर्म का प्रसार और करमती व निजारी लोगों का आपसी झगड़ा भी विस्थापन का कारण था। मल्लीनाथ के समय के धारु और उगमसी के पंथ की जड़े भी उसी से निकली है। बाबा रामदेव जी ने जिसे आगे किया।
कुल मिलाकर मंसुरिया खांप के बारे में यह निष्कर्ष है कि यह मंसूरा स्थान से बनी हुई जाति है और वहां से नाम अंगीकार कर विस्थापित होकर जगह-जगह घूमती हुई वर्तमान मारवाड़ में आ बसी। अगर कोई कितना ही पहले आया भी ही तो उसका भी यहां 10वीं शताब्दी के बाद ही आना सम्भव है। उसके बाद कम या ज्यादा रूप में आते रहे है और आजादी के समय तक आते रहे।
(शेष अन्य खाँपों के वर्णन में देखे, मंसुरिया गोत्र/खांप मेघवालों के अलावा कुछ अन्य जातियों में भी प्रचलित है)
सूमड़ा-----
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