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मेघ जाति खांप सूमरा सोमरा सुमडा

Megh ethnology: Soomaras सूमरा / सोमरा /सुमडा,             सूमरा/सुमरा(डा) या सोमरा (soomara or somara) भी मेघवाल जाति की एक खांप है. उच्चारण भेद से कहीं कहीं इन्हें सुमरा, सूमरा ( रा की जगह डा या ड़ा भी उच्चारित किया जाता है )और कहीं कहीं सोमर या सोमरा कहा गया है. इस खांप की उत्पत्ति और सम्बन्ध भी सिंध से रहा है अर्थात इस खांप की उत्पत्ति भी सिंध-प्रदेश से हुई है। इस खांप का नामकरण ‘सोमर या सूमर’ नाम के एक प्रतापी व्यक्ति के नाम के पीछे हुआ अर्थात सूमर के वंशज सूमरा या सोमर कहलाये. ये लोग मेघ थे और अपने राजत्व काल में इस्माईली धर्म अपना लिया था. इस राजवंश की स्थापना के बाद में भी कुछ हिन्दू धर्म और कुछ मुस्लिम परस्त होते रहे है. इनका सिन्ध में ईसवी सं 1026 से 1356 तक शासन रहा है। ( हिस्टोरिकल एटलस ऑफ़ सूमरा किंगडम ऑफ़ सिंध में इसे इस्वी सन 1011 से 1351 दर्शाया है, देखें: एम्. एच. पन्ह्वार, संगम पब्लिकेशन, कराची ) अब्दुर रशीद गजनवी के शासन काल (हिजरी 444) तक सिंध के लोग गजनवियों को राजकर देते थे अर्थात वे गजनी के अधीन थे। उस समय गजनवी राज्य में उलट-फेर हो...

मेघवाल जाति की खांप, धांधू या धांधल, मंसुरिया मसूरिया

धांधू या धांधल:                  'धांधू' मेघवाल कौम की एक खांप है। इस खांप की उत्पत्ति तेरहवीं-चौहदवीं शताब्दी के दौरान हुई प्रतीत होती है। उस समय की शब्दावली में धांधू शब्द का अर्थ सैनिक या सिपाही होता है। इस खांप के मेघवाल अपनी खांप की उत्पत्ति 'धांधू' नाम के पुरुष से हुई बताते है, जिसे कहीं कहीं धांधलीमल या धांधल मल भी कहा जाता है।जो धांधूसर प्रदेश का राजा था। यह प्रदेश सिंध के गुजरात इलाके में बताया जाता है। इसका संधान यही है कि धांधू खांप की उत्पत्ति सिंध प्रदेश से ही हुई है।                   धांधू वीर-पराक्रमी, परोपकारी और दयालु राजा था। मुसलमानों के आक्रमण के समय उसको राज्य विहीन होना पड़ा और उसके वंशधर अन्य सामंतों या राव-राजाओं के वहां सैनिक के रूप में जीवन बिताने लगे। अधिकतर लोगों की यही आजीविका रही, इसलिए उनकी अलग खांप बन गयी और वे सैनिकवृति के कारण भी धांधू कहे जाने लगे। इन दोनों घटनाओं में धांधू का अर्थ एक ही होता है। ये लोग मूलतः सिंध से गुजरात और गुजरात से विभिन्न राजाओं के सैनिक...

युद्ध मे बीजड़ और लिम्बा मेघवाल बहादुरी से लड़े।

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तेरहवीं शताब्दी में दिल्ली में अलाउद्दीन खिलजी का राज्य था और जालोर कान्हड़दे के अधीन थी। अलाउद्दीन खिलजी की सेना और कान्हड़दे की सेना के बीच भयंकर युद्द हुआ।         जालोर के कान्हड़दे के साथ हुए युद्ध के बारे में खुसरो और फरिश्ता लिखते है: एक बार जालोर का शासक कान्हड़दे दिल्ली के सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी को धोक देने दिल्ली गया। वहां उसने आपसी बातचीत में कहा कि हिंदुस्तान की धरती पर आज के दिन कोई भी ऐसा बलशाली भूपति नहीं है, जो उसकी सेना से मुकाबला कर सके। एक दिन अलाउद्दीन की मजलिस जुड़ी हुई थी, उस में कान्हड़दे भी था। अलाउद्दीन ने कहा कि अगर मैं चुनौती दूं तो तुम मैदान में टिक नही सकोगे! कान्हड़दे बोला कि कैसे मरना है, मैं वह जानता हूं! सुल्तान को गुस्सा तो बहुत आया परंतु उस समय उसने कुछ नहीं कहा। उसको जाने दिया। कान्हड़दे कुछ समय दिल्ली में रहा और फिर वापस जालोर चला आया।                 दो-तीन महीने बाद सुल्तान ने अपनी सेना को तैयार कर जालोर कूच करने का हुक्म दिया। उसकी एक सेना मलिक नायब के नेतृत्व में दक्षिण गयी हुई थी औ...

राजस्थान में समाज सुधार का कार्य और मेघवाल

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बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में बिखरे हुए मेघ-समाज को एकसूत्र में बांधने के लिए और इसकी दयनीय दशा में सुधार के लिए कई  कृत-संकल्प लोग आगे आये।  जिनमें मदाजी मेघ एक प्रमुख शख्सियत थे। आप तिंवरी के कणवारिया उमेदाराम जी कटारिया के अजीज मित्र थे। आपने इस हेतु सबसे पहले उमेदाराम जी को इस काम को हाथ में लेने हेतु राजी किया। इस हेतु कुछ बैठके तिंवरी और ओसियां में हुई। अंत मे एक खाका बनाया और मेघवंशी सुधार सभा बनाने का तय हुआ। जिससे मेघवाल पंचायतों की रूपरेखा बनी और पंचायतें वजूद में आयी।                  समाज के सभी लोगों को इकट्ठा करना बड़ा मुश्किल काम था। मदाजी ने उमेदाराम जी को आश्वस्त किया कि वे घूम-घूम कर सभी पंचों को एक जगह इकट्ठा कर देंगे और आगे का काम वो संभाल ले। यह बात तय होने पर आपने इस हेतु मेघवालों के कई मौजिज लोगों से संपर्क करके उनको अपनी बैलगाड़ियों और ऊंठों से तिंवरी में इकट्ठा किया। अंत में विक्रम संवत 1972 यानी ईसवी सन 1915 के 3 मार्च को तिंवरी में मीटिंग हुई और मेघवंशी सुधार सभा यानी मेघवालों की पंचायतों का गठन हुआ। इस में ...